SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ सम्यक्त्व विमर्श W प्रात्मा को भी रूपी द्रव्य की तरह प्रत्यक्ष मानकर विश्वास करता है, किंतु मिथ्यात्व के उदय से, पढे-लिखे लोग, साधक युक्तियो के सद्भाव मे भी कुतर्क द्वारा जीव के प्रति अविश्वासी बनते है। भगवान् महावीर के आद्य गणधर प्रातः-स्मरणीय श्रीगौतमस्वामीजी महाराज भी भगवान् से साक्षात् होने तक जीव के अस्तित्व के विषय मे शकाशील थे। यद्यपि वे जीव और स्वर्ग नरक के विषय मे प्रकट रूप से निश्चित मत व्यक्त करते थे, और स्वर्ग-कामना से यज्ञादि कराते थे, किंतु उनके हृदय मे शंका अवश्य थी । जीव के अस्तित्व के विषय मे निश्चय-विश्वास नही था । दूसरे गणधर श्री अग्निभूतिजी को कर्म मे शका थी। श्री वायुभूतिजी, शरीर और जीव की भिन्नता के विषय मे शंकाशील थे । इस प्रकार भगवान् से साक्षात् होने के पूर्व तक सभी गणधर शकाशील थे और इन्हे आत्मा की किसी एक अवस्था के विषय मे शंका थी। (विशेषावश्यक भाष्य) शंका का मूल कारण दर्शन-मोहनीय का उदय और मात्मा तथा उसकी विभिन्न अवस्था का अप्रत्यक्ष होना है । उन सरल आत्माओ का दर्शन-मोह नितान्त कमजोर होकर नष्ट होने के लगभग था। वे उन वस्तुओ का प्रत्यक्ष नही करते हुए भी भगवान् की पवित्र वाणी के निमित्त से दृढ श्रद्धालु बन गए। उनकी श्रद्धा इतनी दृढ हो गई कि जैसे उन्होने आत्मा का प्रत्यक्षसाक्षात्कार कर लिया हो। जीव का अस्तित्व माननेवाले अजैन मतावलम्बी, जीव
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy