SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 148
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १२८ सम्यक्त्व विमर्श NNNNNN पुद्गल भी उडते हैं। इसी प्रकार रोग मिश्रित वायु-श्वासादि' भी फैलते हैं। उन सब को किटाणु (जीव) ही मान लेना तो भूल ही होगी। जो विचारवान मनुष्य, अन्य सत्य विचारो के साथ जीव को ही जीव मानते है, अजीव को जीव नही मानते, वे ही सम्यग्दृष्टि है और वे ही आत्मविकास साधकर मुक्ति पा सकते हैं। ६ जीव को अजीव मानना संसार में कई प्रकार के लोग हैं। कई ऐसे भी हैं जो जलचर-मगर-मच्छ मे जीव नही मानकर अजीव मानते हैं और उन्हे मनुष्य का खाद्य-पदार्थ कहते हैं । उनसे भी अधिक संख्या ऐसी है जो अंडो मे जीव नही मानती, और ऐसी संख्या तो सर्वाधिक है कि जो पृथिव्यादि स्थावरकाय मे जीव का अस्तित्व ही स्वीकार नही करते हैं । ऐसे कई धर्म-सम्प्रदाय कहलाते हैं, जो जलाशयो मे नहाने मे धर्म मानते हैं और पुष्प फलादि, देव के मर्पण करने तथा तपस्या मे फलाहार करने मे धर्म मानते हैं। यदि वे समझते होते कि 'पानी और वनस्पति मे जीव है, इनकी हिंसा का त्याग करना धर्म है, तो विवेक के सद्भाव मे इन जीवो की हिंसा करके धर्म होना नही मानते, बल्कि हिंसा से विरत होने मे ही धर्म मानते। छ. द्रव्यो में जीव-द्रव्य, संग्रह नय से एक मानते हुए
SR No.010468
Book TitleSamyaktva Vimarsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRatanlal Doshi
PublisherAkhil Bharatiya Sadhumargi Jain Sanskruti Rakshak Sangh
Publication Year1966
Total Pages329
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy