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________________ ३७०-सम्यक्त्वपराक्रम (५) स्वभावत ऊर्ध्वगमन ही करना है। अतएव आत्मा कर्म रहित होने पर भी सीघ, गति करता है । अद्वैतवादी लोग सब जीवो में एक ही आत्मा होना । कहते हैं, परन्तु उनका यह कथन युक्तिमगत प्रतोत नही होता । अगर आत्मा एक ही हो तो एक आत्मा के सिद्ध होने पर समस्त जीवात्मायो को सिद्ध मानना पड़ेगा । इपी प्रकार एक के मुक्त होने पर सभी का मुक्त होना मानना पडेगा । पर वास्तव में ऐसा नहीं होता । सब मे एक ही आत्मा है, यह कथन पूर्वोक्त कारणो से तथा अन्य अनेक कारणो मे युक्तियुक्त नही जान पड़ता । अतएव सबका आत्मा अलग-अलग है, यही मानना उचित है । शास्त्रकारों ने राग द्वेष और मिथ्यात्व पर विजय प्राप्त करने का फल परम्परा से सिद्धिगति प्राप्त होना वतलाया है । जो अवस्था सिद्ध भगवान् ने प्राप्त को है वही अवस्था प्राप्त करने का हमारा भी प्रयास होना चाहिए । सिद्धिगति प्राप्त करने का दृष्टिबिन्दु मामने रखकर सतत अभ्यास किया जाये ता सहज ही वह प्राप्त हो सकती है। जिन महापुरुपो ने यह अवस्था प्राप्त को है, उन्होने भी अभ्यास करते-करते ही प्राप्त की है । जो महापुरुष सिद्ध अवस्था प्राप्त करने का अभ्यास कर रहे हैं जिन्होने राग द्वेष पर विजय प्राप्त कर ली है और जो देह मे रहते हुए भी विदेह की भाति रहते है, उन महापुरुपो द्वारा बतलाये मार्ग पर चलने से अपन भो वह अवस्था प्राप्त कर सकते हैं । हाँ, उस मार्ग पर चलने का पुरुपार्थ करना अपना काम है । पुरुपार्थ करते रहने से जब सिद्धगति प्राप्त हो जाती है, तब कोई भी काम करना शप नहीं रहता ।
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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