SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 399
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ बहत्तर-तेहत्तरवां बोल-३६६ से सिद्ध होते है । ज्ञान और दर्शन के उपयोग का समय एक ही नही हो सकता । दोनो का उपयोग भिन्न-भिन्न समय __ मे होता है । अतएव ज्ञानोपयोग मे ही सिद्ध होते है । साकार उपयोग मे सोधो गति करके मुक्तात्मा सिद्ध, वृद्ध और मुक्त होकर परिपूर्ण अवस्था प्राप्त कर के निरावरण धर्म प्राप्त करते है । प्रश्न किया जा सकता है कि प्रात्मा यदि अकर्मा अर्थात् कमरहित बन गया है तो फिर गति किस प्रकार कर सकता है ? अगर अात्मा गति करता है तो गति का कारण अवश्य होना चाहिए अर्थात् कर्म होने चाहिए । इस प्रश्न का उत्तर यह है कि गति करना तो आत्मा का स्वभाव है । अपने स्वभाव से प्रात्मा सीधी गति करता है, टेढी-तिरछी गति कर्म के कारण होती है। मुक्तात्मा सीधी गति करता है और ऐसा करना आत्मा का स्वभाव है। उदाहरणार्थ-दीपक की शिखा हमेशा ऊपर हो जाती है, क्योकि यही उमका स्वभाव है । दीपक की शिखा को नीचे की ओर करना हो तो दूसरे प्रयोग से ही सम्भव है। इसी प्रकार आत्मा म्वभाव से सीधी गति करता है और कर्म के निमित्त से टेढी-तिरछी गति होती है। लेप वाला तबा लेप हटते ही ऊपर की ओर आता है । जब तक उस पर लेप चढा रहता है तब तक वह पानी में डूबा रहता है। इसी प्रकार आत्मा जब तक कर्मयुक्त रहता है तब तक टेढी गति करता है । जब कर्मरहित हो जाता है तो सीधी ही गति करता है। कहने का आशय यह है कि आत्मा मे गति करने का स्वभाव है । आत्मा
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy