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________________ उनहत्तरवां बोल-३३७ उसकी आत्मा तो भलीभांति जानती ही है कि मैं कपट का सेवन कर रहा हूं । कोई अपने छल-बल से किसी अपढ़ प्रादमी को पांच और पाच ग्यारह कहकर भले ही ठग ले, मगर वह स्वय तो जानता है कि पाच और पांच दस होते हैं । मैं तो कपट करके ही ग्यारह मनवा रहा हूं । इस प्रकार अपना ही प्रात्मा कपट की निन्दा करता है । आज तो वही चतुर समझा जाता है जो दूसरों को ठगने में चतुर हो । वकील भी वही होशियार गिना जाता है जो झूठे को सच्चा और सच्चे को झूठा साबित कर सकता । ___ सुना है, एक होशियार वकील भोजन करने बैठा था। इतने में उसका एक मुवक्किल आया और उसने पचास हजार रुपये के नोट वकील के सामने रख दिये। वकील ने अपनी चतुराई का गर्व प्रकट करते हुए अपनी पत्नी की ओर निगाह फेरी । मगर पत्नी मुंह के आगे हाथ लगाकर रुदन कर रही थी । वकील ने रोने का कारण पूछा । कहा-'क्यो, अपने घर किस बात की कमी है ? देखो, आज हो पचास हजार आये हैं । मैं कितना होशियार हूं और मेरी क्तिनी ज्यादा कमाई है, यह सब जानते वूझते भी तुम रो रही हो ?' वकील की पत्नी ने कहा-मैं तुम्हे देखकर रो रही हूं। वकील-क्यों ? मैंने कोई बुरा काम किया है ? । वकील पत्नी- आपने सच्चे को भूठा और झूठे को सच्चा बनाया है । यह क्या कम खराब काम है ? आप पचास हजार पाकर फूले नही समाते, मगर जिसके एक लाख डूब गये और एक लाख घर से देने पड़े, उसके दुःख
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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