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________________ १८८- सम्यक्त्वपराक्रम (४) + 'होती । भाव मे वक्रता थाने से काय में भी वक्रता आ जाती है । उपर्युक्त उदाहरण में हम देख चुके हैं कि नकली बादशाहो ने भी पोशाक तो असली बादशाह सरीखी ही पहनी थी, परन्तु उनके भाव वक्र होने के कारण उनकी काया मे भी वक्रता श्रा गई थी । इसके विपरीत बादशाह के भाव में वक्रता न थी अतएव उसकी काया मे भी वक्रता 'न आई । भाव को वक्रता या सरलता का पता तो काय ' की वक्रता और सरलता से सहज ही लग जाता है । अतएव भाव मे सरलता रखने के साथ काया मे और भाषा मे भी सरलता रखना आवश्यक है । अगर कोई मनुष्य काया में वक्रता रखकर अपने भाव सरल बतलाता है तो उसका कथन मिथ्या है | ( अतएव कपट का प्रार्थना करोगे तो 6 भगवान् ने जो सरलता का फल बतलाया है, उसे दृष्टि में रखते हुए प्रत्येक कार्य मे सरलता रखनी चाहिए । गौतम स्वामी ने सरलता के विषय में प्रश्न पूछकर आत्मकल्याण करने का सरल मार्ग वर्तलाया है । सरलता रखना आत्म'कल्याण साधने का सरल मार्ग है । सरल बनो, कपट मत रखो; इस सीधे-सादे वाक्य मे गहरा भाव छिपा है । कपट रखने से परमात्मा प्रसन्न नही होता और न आत्मकल्याण साधा जा सकता है भगवान् ने तो स्पष्ट कह दिया है कि सरलता धारण करने वाला ही स्व-पर का कल्याण कर सकता है और कपट करने वाला अपना तथा पराया प्रकल्याण करता है । धर्म की आराधना अविसवादीपन से ही होती है और अविसवादीपन सरलता से ही प्राप्त होता है । त्याग करके सरलतापूर्वक परमात्मा की श्रवश्य. ही अविसवाद प्रकट कर सकोगे / } "
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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