SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 203
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अड़तालीसवां बोल- १८७ 1 Ly 1 ऐसे अनेक वादशाह बनाये जाते हैं । यह लोग भी ऐसे ही बादशाह हुँ । बादशाह ने फिर पूछा- यह बात तुमने कैसे जानी 'कि ये लोग असली बादशाह नहीं हैं और मैं ही असली बादशाह हू । भारत के प्रधान ने कहा- जिस समय मैं राज" सभा में दाखिल हुआ, उस समय यह मेरी पोशाक की ओर वक्र दृष्टि से देखने लगे । अकेले आप ही गम्भीर होकर बैठे रहे । आपकी गम्भीरता देखकर मैं जान सका कि वास्तव मे आप ही बादशाह हैं । यह सुनकर बादशाह बहुत प्रसन्न हुआ । प्रधान के साथ उसने हाथ मिलाया और उसकी पीठ ठोक कर योग्यता का प्रमाण पत्र दिया । रोम के बादशाह ने भारतीय प्रधान से शेखहुसेन के आने का जिक्र करते हुए कहा- तुम से पहले जो प्रधान आया था, वह तो बिलकुल अयोग्य था। भारतीय प्रधान ने रोम के बादशाह के मुख से शेखहुसेन की निन्दा सुन कर कहा जहापनाह । शेखहुसेन को तो आपकी परीक्षा करने भेजा था । वास्तव मे वह प्रयोग्य नही था । इस प्रकार भारतीय प्रधान ने अपनी प्रतिष्ठा बढाने के साथ शेखहुसेन की अप्रतिष्ठा भी दूर की । " प्रधान रोम से लौटकर बादशाह अकबर के समक्ष , आया । उसने रोम का सारा वृत्तान्त कह सुनाया । वाद t I > शाह सारी बातें सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ । उसने मुसलमानो को बुलाकर कहा - 'वजीर हो तो ऐसा होना चाहिए ! बादशाह का कथन सुनकर मुसलमानो ने कहा - 'अब हमारी समझ मे आया कि आप जो कुछ करते हैं, योग्य ही करते हैं । ' -- 1 इस कथा से यह सार निकलता है कि जब भाव में सरलता आती है तव काया मे भी सरलता आती है और जब भाव में सरलता नही होती तो काय मे भी सरलता नही 1
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy