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________________ ११६-सम्यक्त्वपराक्रम (४) वह देव साधु का स्वाग बना कर जहां नदिसेन मुनि ठहरे थे, वहा पास के एक जगल मे जाकर पड़ा रहा । उस देव ने अपने शरीर को ऐसा रुग्ण बना लिया कि शरीर के छिद्रो मे से रक्त और मवाद बहने लगा । उस रक्त और पीव मे से असह्य दुर्गन्ध निकल रही थी। इस प्रकार रोगी साध का भेषधारण करके उस देव ने नादसन मुनि के पास समाचार भेजा कि पास के जगल मे एक साधु वहत बीमार हालत मे पडे है। उनकी सेवा करन वाला कोई नही है, अत उन्हे बहत अधिक कष्ट हो रहा है। नदिसेन मुनि को जैसे ही यह समाचार मिले कि व तुरन्त उन रोगी साधु की सेवा करने के लिए चल पड । मुनि मन ही मन विचारने लगे -'मेरा सौभाग्य है कि मुझ साघु सेवा का ऐसा सुअवसर हाथ आया है ।' इस प्रकार विचार कर नदिसेन मनि रोगी साधु को सेवा करने के लिए जगल में पहचे । मूनि उस कपटी वेषघारी रोगी साधु को ओर ज्यो-ज्यो ग्रागे जाने लगे त्यात्यो उन्हे अधिकाधिक दुर्गन्ध आने लगी। परन्तु नदिमन मुनि उस असह्य दुर्गन्ध से न घबरा कर रोगा साधु १ समीप पहुच गये । नदिसेन मुनि को आते देखकर वह सात्रु वेपघारी देव क्रुद्ध होकर कहने लगा 'तुम क्यो इतनी देरा करके आये ? मुझे कितना कष्ट हो रहा है, इसका तुम्ह. खयाल ही नही है ? मेवाभावी कहलाते हो और सेवा करन के समय इतना विलम्ब करत हो ।' साधु रूपधारी देव इस प्रकार कहकर नदिमेन को उपालभ देने लगा। यद्यपि देव ने अपना शरीर घणोत्पादक बनाया था
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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