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________________ तेतालीसवां बोल - ११६ ने इनकी सेवाभावना की जितनी प्रशंसा की थी, वास्तव में मुनि का सेवाभाव वैसी ही प्रशंसा का पात्र है।' इस प्रकार विचार करके साधु वेषधारी देव, साधुवेष का त्याग करके, अपने स्वाभाविक रूप में नीचे उतरा और मुनि के पैरो पर गिरकर कहने लगा -- हे मुनिपु गव । आपकी सेवाभावना की जैमी प्रशसा इन्द्र महाराज ने को थी, आप वैसे ही सेवामूर्ति हैं । आपने सेवा द्वारा देवो को भी जीत लिया है । सेवा करने वाला देवो को भी जीत लेता है । शास्त्र में भी कहा हैः - देवा वित नमसंति जस्म घम्मे सया मणो । अर्थात् जिनका मन धर्म मे सदा अनुरक्त रहता है; उन्हें देवता भी नमस्कार करते हैं । - वैयावृत्य करने वाले व्यक्ति के आगे देव भी नत - मस्तक हो जाते हैं तो साधारण लोग अगर सेवाभावी को नमस्कार करें तो इसमे आश्चर्य ही क्या है ? सेवाभावी व्यक्ति को मन मे किसी प्रकार को छल-कपट नही रखना चाहिए। जिनके मन मे विकारभाव नही होता. देव भी उनकी सेवा करते हैं । अतएव मन को पवित्र रखो । न दिसेन मुनि के मन मे कपटभाव नही था और न घृणाभाव ही था । इसी कारण उनकी सेवावृत्ति सफल हुई । तीर्थङ्कर बनना तो सभी को रुचता है मगर तीर्थकर पद प्राप्त करने के लिए सेवा करना रुचता है या नही, यह देखो । सेवाकार्य कितना कठिन है, इस सम्बन्ध मे कहा है
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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