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________________ तेतालीसवां बोल-११७ और उसके शरीर से दुस्सह दुर्गन्ध फूट रह नदिसेन मुनि दुर्गन्ध स [र से दुस्सह दुर्गन्ध फूट रही थी, फिर भी मुनि दुर्गन्ध से न घबरा कर उसकी सेवा करने के - उसक पास गये । मगर पास पहचते ही वह दव नाराज पालभ देने लगा। उपालभ सुनकर नदिसेन मुनि " मा नाराज न हए । उल्टे विलम्ब के लिए क्षमा। करने लगे । उन्होने सेवा करने की आज्ञा देने की भी माग की। देव से कहा भादसेन की बात सुनकर देव ने कहा-देखते नही, सरार कितना कृश. दर्बल और अस्वस्थ बन गया है। र की सेवा करने के सिवाय और क्या आज्ञा तुमे चाहते हो ? . मुनि ने विचार किया-अगर मैं नगर मे दवा लेने "गा तो बहत देरी लगेगी। ऐसा विचार कर उन्होने स कहा - अगर आप नगर मे चले तो । देव--मेरे पैरो में चलने की शक्ति होती तो तुम्हारी सहायता की आवश्यकता ही क्या थी । मुनि - मेरे पैर भी तो आपके ही हैं । आप मेरे कधे रवठ जाइए । मैं उठाकर नगर तक ले चलू गा । देव मेरे हाथो मे भी तो शक्ति नही है । तुम्हारे को पर चढूं तो कैसे चढू । मुनि--तो क्या हानि है ? मैं खुद ही अपने कचे पर विठला लू गा । नक अपनी शक्ति को दूसरो की ही शक्ति , मानता है और अपना तन, मन पर की सेवा के लिए सम.
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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