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________________ ११८- सम्यक्त्वपराक्रम (४) पित कर देता है । सेवा का यह आदेश अगर जनसमाज के हृदय मे अकित हो जाये तो यह ससार स्वर्ग बन जाये। नदिसेन मुनि ने उस देव को अपने कधे पर चढा लिया । देव ने नदिसेन मुनि को सेवा की प्रतिज्ञा से विच. लित करने के लिए अपने शरीर मे से रक्त और पीव की घारा बहाई, मगर नदिसेन मुनि अपनी सेवाभावना को स्थिर और दृढ करते हुए देव के दुर्ग धमय शरीर को उठाकर नगर में ले गये । देव के शरीर से निकलती दुर्गन्ध के कारण तथा देव की प्रेरणा से प्रेरित होकर नगरजन मुनि से कहने लगे--'पाप ऐसे रोगी मनुष्य का नगर में नही ले जा सकते । एक रोगी के पीछे अनेको को रोगी नही बनाना चाहिए।' नागरिकजनो का विरोध देखकर मुनि की स्थिति कितनी बेढगी हो गई होगी ? ऐसी विषम स्थिति मे मुनि के मन मे अनेक प्रकार के तर्क-वितर्कों का उत्पन्न होना स्वाभाविक है। परन्तु उन्होने खोटा तर्क-वितर्क नही किया । वे समभावपूर्वक नागरिक लोगो की बात सुनते रहे । मुनि ने मन ही मन विचार किया-'मैं नगरजनो को भी दुखी नही कर सकता और इस रोगी साधु की सेवा का भी परित्याग नहीं कर सकता । हे प्रभो । ऐसी विकट स्थिति मे क्या करूँ ?" नदिसेन मुनि इस प्रकार विचार कर रहे थे । इतने में साधु वेषधारी देव ने भी विचार किया--'ऐसी विपम परिस्थिति उत्पन्न होने पर भी इन मुनि के हृदय मे सेवा के प्रति उतना ही दृढ विश्वास है । वास्तव मे इन मुनि की सेवाभावना अत्यन्त उच्च कोटि की है । इन्द्र महाराज
SR No.010465
Book TitleSamyaktva Parakram 04 05
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1973
Total Pages415
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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