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________________ अध्ययन का आरम्भ - ७६ भगवया महावोरेणं कासवेणं पवेइयं, ज सम्मं सद्दहित्ता, रोयइत्ता, फासित्ता, तीरिता, पत्तइत्ता, सोहइत्ता, श्राराहित्ता प्राणाए श्रणुपालइत्ता बहवे जीवा सिज्भंति कित्तइत्ता, बुज्झन्ति, मुच्चन्ति, परिनिव्वायन्ति, करेन्ति ।' सव्वदुक्खाणमन्तं हे जम्बू । काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान् महावीर ने 'सम्यक्त्वपराक्रम'' नामक जो अध्ययन प्ररूपण किया है, वह इतना महत्वपूर्ण है कि इस पर सम्यक् श्रद्धा करके, प्रतोति करके, रुचि करके, इसका स्पर्श करके, पार करके, कीर्ति करके, सशुद्धि करके, आराधना करके और आज्ञापूर्वक अनुपालन करके अनेक जीव सिद्ध, वुद्ध और मुक्त होकर निर्वाण प्राप्त करते है और सब दुखो का अन्त करते हैं । सुधर्मास्वामी ने इस प्रकार कहकर सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने का महामार्ग इस सूत्रपाठ मे प्रदर्शित किया है । इस मूत्रपाठ में जगत् के जीवो को धर्म का बोध देने की जो शैली स्वीकार की गई है वह कितनी सरल, अर्थयुक्त और प्रभावशालिनी है । इसका ठीक रहस्य वही समझ सकता है जो सूत्रपारगामी हो । ऊपरी दृष्टि से देखने वाले को इस सूत्रशैली में पुनरुक्ति दिखाई देती है, पर इस पुनरुक्ति मे क्या उद्देश्य छिपा हुआ है और पुनरुक्त प्रतीत होने वाले शब्दो मे कितनी सार्थकता एवं अथगभीरता है, इस विषय का गहरा विचार किया जाये तो मन की शका का समाधान हो जायेगा, अनेक अपूर्व बाते जानने को मिलेंगी और सूत्ररचना-शैली पर अधिक आदरभाव उत्पन्न होगा । मगर आज सूत्ररचना के सम्बन्ध मे गहरे उतर कर नही वरन् ऊपरी दृष्टि से ही विचार किया जाता है । अगर 3
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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