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________________ श्रतएव सिपरी श्रद्धा बार ऊपर सही है, इस ८०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) प्रत्येक शब्द के अर्थगाभीर्य पर विचार किया जाये तो सूत्ररचना शैली की गभीरता प्रतीत हुए विना नही रह सकती। __ सुधर्मास्वामी ने जम्बूस्वामी को सिद्ध, बुद्ध और मुक्त होने का जो महामार्ग वतलाया है, उस मार्ग पर जाने के लिए श्रद्धा प्रवेशद्वार है। श्रद्धा का अर्थ किसी बात को निःसदेह होकर मानना है । अमुक वात ऐसी ही है, इस प्रकार समझना श्रद्धा है। कई बार ऊपर से श्रद्धा प्रकट की जाती है, मगर ऊपरी श्रद्धा मात्र से कुछ काम नही चलता । अतएव सिद्धान्त-वचनो पर हृदयपूर्वक विश्वास करना चाहिए और प्रतीति भी करनी चाहिए । कदाचित् सिद्धान्तवचनो पर प्रतीति हो जाये तो भी कोरी प्रतीति से कुछ विशेष लाभ नहीं होता । व्यवहार मे आये बिना प्रतीति मात्र से सिद्धान्तवाणी पूर्ण लाभप्रद नही होती। अतएव प्रतीति के साथ ही सिद्धान्तवाणी के प्रति रुचि भी उत्पन्न करनी चाहिए अर्थात् उसके अनुसार व्यवहार भी करना चाहिए। ऐसा करने से ही भगवान् की वाणी से पूर्ण लाभ उठाया जा सकता है। एक उदाहरण से यह बात स्पष्ट कर देना उचित होगा। मान लीजिये, एक रोगी डाक्टर से कहता है कि तुम्हारी दवा पर मुझे विश्वास है । यह श्रद्धा तो हुई मगर प्रतीति नही। प्रतीति तव हो। जब उस दवा से किसी का रोग मिट गया है, यह देख लिया जाये। इस प्रकार दूसरे का उदाहरण देखने से प्रतीति उत्पन्न होती है । डाक्टर निस्पृह और अनुभवी है, इस विचार से दवा पर श्रद्धा तो उत्पन्न हो जाती है, मगर प्रतीति तब होती है जब उसी दवा से दूसरे का रोग मिट गया है, यह जान लिया जाये। मान
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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