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________________ ६६-सम्यक्त्वपराक्रम (१) है और जब पाँचो भूतो का सयोग नष्ट हो जाता है तो शरीर भी नष्ट हो जाता है । इस प्रकार जीव-आत्मा को न मानने वाले भी हैं। यह भी एक प्रकार का ज्ञान है, किन्तु है यह मिथ्याज्ञान । जीव में अजीव की स्थापना करने का कारण यही है कि ऐसी स्थापना करने वाले लोग अभी तक सम्यग्ज्ञान से दूर हैं । जब वह सम्यग्ज्ञान के समीप आएँगे तो, जैसे समीप जाने से सीप मे चाँदी का मिथ्याज्ञान मिट जाता है, उसी प्रकार आत्मा सम्बन्धी मिथ्याज्ञान भी मिट जायगा । उस समय उन्हे आत्मा का भानं होगा । पुराने लोग जो आधुनिक शिक्षा से प्रभावित नही हुए है, आत्मा मानते है, किन्तु आधुनिक शिक्षा के रग मे रगे हुए अनेक लोग आत्मा का अस्तित्व ही स्वीकार नही करते । जैसे दूर रहने के कारण मृगजल, जल समझ लिया जाता है और सीप, चाँदी मानली जाती है, उसी प्रकार जीवतत्त्व से दूर रहने के कारण ही लोग जीव को अजीव मान लेते है । अगर वह जीवतत्त्व के निकट पहुँचे तो उन्हे प्रतीत होगा कि वह भ्रमवश जिसे अजीव मान रहे थे, वह अजीव नही, जीव है। 'आत्मा नही है" यह कथन ही आत्मा की सिद्धि करता है। उदाहरणार्थ-अंधेरे मे रस्सी सॉप जान पड़ती है। किन्तु इस प्रकार का भ्रम तभी हो सकता है जब कि साप का अस्तित्व है । सॉप का कही अस्तित्व न होता तो साँप का भ्रम भी कैसे हो सकता था ? जिसने जल देखा है वही मगजल में जल की कल्पना कर सकता है, जिसने कभी कही जल का अनुभव नही किया वह मृगजल देखकर जल की कल्पना ही नही कर सकता । इसी प्रकार आत्मा नही -
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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