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________________ अध्ययन का प्रारम्भ-६५ जाते हैं, तब तक वह जिस रूप में माने जाते हैं उसी रूप __ में दिखाई देते हैं, किन्तु अगर पदार्थों के मूल स्वरूप की परीक्षा की जायं तो वह ऐसे नही प्रतीत होंगे, बल्कि एक जुदे रूप में दिखाई देंगे । जब पदार्थो की वास्तविकता समझ मे आ जायेगी तब उनके सम्बन्ध में उत्पन्न होने वाली विपरीतता मिट जायगी'। जब पदार्थो की वास्तविकत्ता का भान होता है और विपरीतता मिट जाती है तभी सम्यगदृष्टिपन प्रकट होता है । सीप दूर से चॉदी मालूम होती थी, किन्तु पास जाने से वह सीप मालूम होने लगी। सीप मे सीपपन तो पहले भी मौजूद था परन्तु दूरी के कारण ही सीप मे विपरीतता प्रतीत होती थी और वह चाँदी मालूम हो रही थी । पास जाकर देखने से विपरीतता दूर हो गई और उसकी वास्तविकता जान पड़ने लगी। इस तरह वस्तु के पास जाने से और भलीभाति परीक्षण करने से वस्तु के विषय मे ज्ञान की विपरीतता दूर होती है तथा वास्तविकता मालूम होती है और तभी जीव सम्यग्दृष्टि बनता है। सीप की भाँति अन्य पदार्थों के विषय मे भी विपरीतता मालूम होने लगती है । पदार्थों के विषय मे विपरीतता किस प्रकार हो रही है, इस विषय में शास्त्र में कहा है-'जीवे अजीवसन्ना, अजीवे जीवसन्ना' 'अर्थात् जीव को अजीव और अजीव को जीव समझना, इत्यादि दस प्रकार के मिथ्यात्व हैं। कहा जा सकता है कि कौन ऐसा मनुष्य होगा जो जीव को अजीव मानता हो ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि जीव को अजीव मानने वाले बहुत से लोग है। कुछ का कहना है कि जो कुछ है, यह शरीर ही है । शरीर से भिन्न आत्मा नहीं है । यह शरीर पाँच भूतो से बना
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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