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________________ २०-सम्यक्त्वपराक्रम (१) विनाश है । अतएव बालक के गुणों का विकास किस प्रकार ‘करना चाहिए, इस विषय मे खूब विवेक रखना आवश्यक है। शास्त्र को समझने के लिए पहले उपक्रम करने की आवश्यकता होती है । जो वस्तु दूर हो उसे उपक्रम करके समीप लाओ और फिर उसे यथास्थान रखकर उसका निक्षेप .करो । वस्तु को यथास्थान स्थापित करना ही निक्षेप कहलाता है । निक्षेप चार प्रकार का है-(१) नाम (२) स्थापना (३) द्रव्य और (४) भाव । 3 वस्तु का निक्षेप करने के पश्चात् उसका अनुगम करो 'अर्थात् रचना करो । ह्रस्व-दीर्घ, उच्चारण-घोष तथा सूत्र के अन्यान्य अतिचारो को दूर करके सूत्र की जैसी रचना करनी चाहिए वैसी ही रचना करना अनुगम कहलाता है। अनुगम करने के अनन्तर नय की सहायता से सूत्र को समझना चाहिए । नय की सहायता के विना सूत्र समझ में नही आ सकते । . शास्त्र-नगर में प्रवेश करने के लिए सिद्धान्त में चार 'अनुयोगद्वार बतलाये गये है। जहाँ इन चार अनुयोगद्वारो मे अपूर्णता होती है वहाँ शास्त्रनगर मे प्रवेश करने में कठिनाई उपस्थित होती है अर्थात् जहाँ यह चार अनुयोगद्वार नही हैं वहाँ प्रथम तो शास्त्रनगर मे प्रवेश ही नहीं हो सकता; कदाचित् होता भी है तो उन्मार्ग से होता है। कई लोग कहते है कि शास्त्र हमारी समझ मे नही आते । मगर चार अनुयोगद्वारो के अभाव मे शास्त्रनगर में किस प्रकार प्रवेश हो सकता है ? कोई मनुष्य नगर के द्वार में प्रवेश न करे किन्तु नगर मे प्रवेश करना चाहे तो वह कैसे प्रवेश कर सकता है ? और वह कैसे जान सकता है कि अमुक नगर
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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