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________________ १८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) मध्य नाम 'अप्रमाद' स्वीकार किया है। अप्रमाद पर प्रकाश डालने से सम्यक्त्वपराक्रम और वीतरागता पर किस प्रकार प्रकाश पडता है, यह बात यथासमय मागे बतलाई जायगी। अप्रमाद की व्याख्या चार अनुयोगद्वारो से की जाये तो यह बात स्पष्ट रूप से समझी जा सकेगी कि प्रमाद किसे कहना चाहिए ? चार अनुयोगद्वारो द्वारा व्याख्या करने का अभिप्राय क्या है ? इस सम्बन्ध में शास्त्र में कहा है-जैसे किसी नगर में द्वार की मार्फत ही प्रवेश किया जा सकता है। द्वार ही न हो तो नगर में प्रवेश नहीं हो सकता और यदि किसी महानगर में एक-दो ही द्वार हो तो प्रवेश करने वालो को कठिनाई उठानी पड़ती है। इसीलिए नगर के चारो ओर चार द्वार बनाये जाते हैं। इससे प्रवेश करने में सरलता होती है। इसी प्रकार शास्त्र की व्याख्या करने मे तथा समझने मे चार द्वारो की व्यवस्था की गई है जिन्हे अनुयोगद्वार कहते हैं। - उपक्रम, निक्षेप, अनुगम और नय, यह चार अनुयोगद्वार है। उपक्रम की व्याख्या इस प्रकार की गई है - 'उपऋम्यतेऽनेन इति उपक्रमः ।' अर्थात् दूर की वस्तु को जो समीप लावे वह उपक्रम कहलाता है । वस्तु को यथास्थान स्थापित करने वाला निक्षेप कहलाता है। कल्पना कीजिए, किसी को घर बनाना है । घर बनाने के लिए दूर-दूर का लकडी-पत्थर आदि सामान नजदीक लाया जाता है । इसे उपक्रम समझना चाहिए । पश्चात् यह सामान यथास्थान रखा जाता है, यह निक्षेप समझिए । अगर सामान नजदीक न लाया जाये अर्थात् उपक्रम न किया जाये और उपक्रम करके भी अगर निक्षेप न किया जाये अर्थात् वस्तुओ को
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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