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________________ सूत्रपरिचय-१७ तीसवें का नाम 'सम्यक्त्वपराक्रम' है । इस तरह दोनो में: नाम का अन्तर होने पर भी भाव की दृष्टि से दोनो के. बीच सगति है। दोनो अध्ययनो का आशय एक ही है । अट्ठाईसवे अध्ययन का नाम 'मोक्षमार्ग' है और उसमें मोक्ष के मार्ग का निरूपण किया गया है। उनतीसवे अध्ययन में, जिन ७३ बोलो की चर्चा की गई है, उनमे पहले-पहल 'सवेग', है और अतिम बोल 'अकर्म' है । सवेग और अकर्म-दोनों; मोक्ष के ही साधन है, इस प्रकार इन दोनो अध्ययनो का आपस मे सम्बन्ध है और इस प्रकार का सम्बन्ध होने के, कारण ही नियुक्तिकार ने इस अध्ययन का 'अप्रमत्त अध्ययन' नाम प्रकट किया है । नियुक्तिकार ने यह मध्यवर्ती, नाम अपनाया है । इस अध्ययन का आदि नाम 'सम्यक्त्वपराक्रम' है, मध्यनाम 'अप्रमत्तअध्ययन' है और अन्त का नाम: 'वीतरागसूत्र अध्ययन है। नियुक्तिकार आचार्य ने इन तीन, नामो मे से मध्य का नाम ग्रहण कर लिया है, जिससे कि आदि और अन्त के नामो का भी ग्रहण हो जाये । सम्यक्त्व के विषय मे पराक्रम अप्रमाद से ही होता है और वीतरागता की प्राप्ति भी अप्रमाद से ही होती है । इसी कारण आचार्य ने इस अध्ययन का नाम 'अप्रमाद-अप्रमत्त अध्ययन रक्खा है। समकित-पराक्रम और वीतरागता की प्राप्ति अप्रमाद से ही होती है, इसलिए आचार्य ने 'मध्य द्वार मे रखे हुए दीपक की भाति इस मध्य-नाम को ग्रहण किया है । मध्य द्वार में रखे दीपक का प्रकाश भीतर भी होता है और बाहर भी, इसी प्रकार 'सम्यक्त्वपराक्रम' और 'वीतरागता' के ऊपर प्रकाश डालने वाला होने के कारण आचार्यश्री ने यह
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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