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________________ चौथा बोल-२३३ और उनकी आज्ञा के अनुसार ही शिक्षा लेता है । प्राचीन काल मे लौकिक गुरु की आज्ञा का भी कितनी सुदरता के साय पालन किया जाता था, इस बात पर प्रक श डालने वाले अनेक उदाहरण प्राचीन ग्रन्थो मे देखे जाते हैं । श्रीकृष्ण को भी उनके लौकिक गुरु सादीपिनी की पत्नी ने जगले मे लडी काट ल ने के लिए भेजा था । श्रीकृष्ण जैसे शिष्य भी गुरुपत्नी की आज्ञा शिरोधार्य कर जगल मे लकडी काटने गये थे । । । जव लौकिक गुरु की आज्ञा का भी इस प्रकार पालन किया जाता है तो सूत्रजान देने वाले लोकोत्तर गुरु की आज्ञा का किस प्रकार पालन करना चाहिए ? यह बात महज ही समझी जा सकती है । जब लौकिक और लोकोतर गुरु की आज्ञा का पालन किया जाता है तभी उनके द्वारा दी हुई शिक्षा फलदायिनी सिद्ध होती है । ऐसा किये बिना शिक्षा सफल नहीं होती। आज शिक्षक नौकर समझे जाते है । शिक्षक भी अपने आपको नौकर ही समझते है और जिम किसी उपाय से अपनी नौकरी बनाये रखने का प्रयत्न करते रहते हैं, फिर भले ही उनके द्वारा किसी विद्यार्थी को लाभ पहुचे या नही । पहले विद्या को विक्रय नहीं होता था, प्राज विक्रय हो रहा है । इसी कारण विद्यार्थी को पढने और शिक्षक को पढाने मे जैसी चाहिए वैसी रुचि और प्रीति नही होती । फलस्वरूप विद्या फलदायिनी नही होती, जैमा कि आजकल देखा जा रहा है। विद्या ग्रहण करने मे विनय की और विद्या देने में प्रेम की आवश्यकता रहती है ।
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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