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________________ २३२ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) ताकेगा । उसका जीवन परतन्त्र नही, स्वतन्त्र होगा । मनुष्य को परतन्त्र बनाने वाली विद्या वास्तव मे विद्या ही नही है । आज की कहलाने वाली विद्या प्राप्त करके भले ही थोडे से वकील या डाक्टर पैदा हो जाएं, मगर इतने मात्र से यह नही कहा जा सकता कि आधुनिक शिक्षा परतन्त्रता मिटाने वाली और स्वतन्त्रता दिलाने वाली है । थोडे में डाक्टरों और वकीलों को अच्छी कमाई हो जाती है, इस कारण आज की शिक्षा ग्रच्छा और परतन्त्रता दूर करने वाली है, यह कदापि नहीं कहा जा सकता । वास्तव मे आधुनिक शिक्षा स्वतन्त्रता दिलाने वाली नही है शिल्पकला का जानकार स्वतन्त्रतापूर्वक अपनी आजीविका उपार्जन कर सकता है । कोरे अक्षरज्ञान के शिक्षण से स्वतन्त्र भाव से श्राजीविका नही चलाई जा सकती । यह बात तो आज स्पष्ट दिखाई देती है । इसी कारण आज अक्षरज्ञान के साथ शिल्पकला के शिक्षण की आवश्यकता है । आज सर्वत्र इस प्रश्न की चर्चा हो रही है। मानसिक शिक्षा के साथ शारीरिक-औद्योगिक शिक्षा की भी आवश्यकता रहता है । ग्रक्षरज्ञान की शिक्षा के साथ शिल्पकला की शिक्षा दी जाये तो सरलतापूर्वक आजीविका चलाई जा सकती है और जीवनव्यवहार स्वाधीनभाव से निभाया जा सकता है । - अक्षरज्ञान या शिल्पकला की शिक्षा पाने के लिए शिष्यो को गुरु की आज्ञा माननी पडती है और उनकी आज्ञा के अनुसार शिक्षा लेने से ही शिष्य शिक्षित वन सकता है। श्री दशवेकालिकसूत्र मे कहा है कि शिष्य लौकिक कला सिखलाने वाले लौकिक गुरु के आज्ञानुसार चलता है
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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