SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 250
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २३४-सम्यक्त्वपसक्रम (१) विनय के बिना विद्या ग्रहण नही की जा सकती और प्रेम के अभाव में विद्या चढती नही है । आज विद्यार्थियो में शिक्षको के प्रति विनयभाव नही देखा जाता, तब शिक्षको मे भी विद्यार्थियो के प्रति प्रेम का अभाव पाया जाता है। इस कारण विद्योपार्जना और विद्यादान दोनों ही नही देखे जाते । जैसे विद्योपार्जन के लिए विद्याथियो में विनय की आवश्यकता है। उसी प्रकार विद्यादान देने में शिक्षको के हृदय मे प्रेम की आवश्यकता है । विद्योपार्जन करने के लिए विद्याथियो को शिक्षको का विनय करना चाहिए । जो विद्यार्थी शिक्षक की सेवा या विनय-भक्ति नहीं करता वरन् अवज्ञा करता है, वह अपने भाग्य को दुर्भाग्य बनाता है। इसी प्रकार शिक्षको को भी, विद्यादान देने के लिए विद्याथियो के प्रति प्रेम और वात्सल्य का भाव रखना चाहिए। ऐसा करना ही विद्या की सच्ची उपासना करना है। जिस प्रकार गुरु की सेवा शुश्रुषा करना आवश्यक है, उसी प्रकार सहधर्मी की मेवा-शुश्रुषा करना भी आव. श्यक है । जैसे गुरु उपकारक है उसी प्रकार हधर्मी भी उपकारक हैं । सधर्मी के भी दो भेद है - लौकिक और लोकोत्तर । जैसे लौकिक गुरु और सहधर्मी की सेवा करना आवश्यक है, उसी प्रकार लोकोत्तर गुरु और सहधर्मी की सेवा- शुश्रुषा करना भी आवश्यक है । गुरु और सहधर्मी दोनो जीवनसाधना के पथप्रदर्शक होने के कारण उपकारक हैं और इसीलिए उनकी सेवा-शुश्रुषा करना भी आवश्यक है। . गुरु. और सहधर्मी की शुप्रषा करने से किस गुण को' प्राप्ति होती है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् कहते है -
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy