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________________ तीसरा बोल-२०५ वियोग से और अनिष्ट पदार्थ के संयोग से मन को जो दुख होता है, वह मानसिक दुख कहलाता है । मानसिक दुख आर्तध्यान में गिना गया है। आर्तध्यान के विपय में श्री उववाई सूत्र में विस्तारपूर्वक विचार किया गया है । यहाँ विस्तृत विचार करने का समय नहीं है । अतः सक्षेप में इतना ही कहता हूँ कि मानसिक, दु ख अर्थात आर्तध्यान दूर करके परमात्मा की प्रार्थना करने से आत्मकल्याण हो सकता है । आर्तध्यान का स्वरूप बतलाते हुए कहा गया है - इण्टवियोग विकलता भारी, अरु अनिष्ट योग दुखारी । तन की व्यापी मन ही झूरे, अग्रशोच करि वंछित पूरे । ये आर्तध्यान के चारो पाये, महा मोहरस से लिपटाये॥ अर्थात-इष्ट वस्तु का वियोग होने से तथा अनिष्ट वस्तु का सयोग होने से महान् मनस्ताप अर्थात मानसिक दूख उत्पन्न होता है । शारीरिक व्याधि के कारण भी मन जलता रहता है और भविष्य मे कौन जाने क्या होगा, अतएव अमुक वस्तु मिल जाय तो अच्छा है, इस भविष्य सम्बन्धी विचार से भी मानसिक दुख होता है। इन चार प्रकारो से होने वाला मनस्ताप आतध्यान कहलाता है। धर्मध्यान करने के लिए आर्त्तध्यान से दूर रहना आवश्यक है। शास्त्र में कहा है कि अनगारिता स्वीकार करने से छेदन-भेदन-ताडन रूप शारीरिक दुख तथा इप्टवियोग, अनिष्ट सयोग आदि 'मानसिक दुखो से छुटकारा मिल जाता है । शारीरिक और मानसिक दुखों से मुक्ति पाने के लिए ही अनगारिता स्वीकार की जाती है। अतएव साधओ और साध्वियो से मुझे यही कहना है कि हमे खूब गम्भीर विचार
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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