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________________ तीसरा-बोल-१८९ एव जगत के जीवो । दर्पण मे मुखड़ा क्या देखते हो - दयाधर्म के पालन से तुम्हारी आत्मा को कितनी शोभा बढ सकी है, यह बात ज्ञानरूपी दर्पण में देखो । इससे तुम्हारा कल्याण हो सकता है । • शास्त्र को जो चर्चा चल रही है वह हितकारी, सरल और सुलभ है । इस धम-चर्चा का विरोधी कोई नही हो सकता । आप किसो भो विरक्त महात्मा के पास जाइए. वह आपको ससार से विरक्त होने का ही उपदेश देगे । आज भी स्वय ससार के पदार्थों का मूल खोजो और उसे खोजकर वैराग्य धारण करो। शरीर ऊपर से कितना ही सुन्दर दिखाई देता हो, लेकिन यह देखो कि उसमे कितना विकार भरा है। जो नाक सुदरता की जड समझी जाती है, उसे काटकर हथेली मे लो तो कैसी बुरी मालूम होगी। जैसे शरीर ऊपर से अच्छा मालूम होने पर भी भीतर से खराब है और ऊपर से देखने वाले उस पर मुग्ध हो जाते है, उसी प्रकार विषयभोगो मे भी विकार भरा हुआ है, लेकिन ऊपरी विचार करने वाले उन पर मोहित हो जाते हैं । अन्तःकरण मे जब धर्मश्रद्धा उत्पन्न होगी तो सासारिक सुखो के प्रति वैराग्य उ पन्न होगा और जब वैराग्य होगा तो सासारिक पदार्थो के प्रति अरुचि उत्पन्न हुए विना नहीं रहेगी। धर्मश्रद्धा का क्या फल मिलता है, यह प्रश्न चल रहा है। इस प्रश्न के उत्तर मे भगवान् ने कहा है: धम्मसद्धाए ण सायासोक्खेसु रज्जमाणे विरज्जइ, आगारधम्मं च णं चयइ, अणगारिए णं जीवे सारीरमाणसाणं
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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