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________________ १८८-सम्यक्त्वपराक्रम (१) देखकर लोग उसे गले का आभूषण बना लेते । मगर विप होने के कारण कोमल होने पर भी उसे कोई हाथ मे लेना नही चाहता । इसी तरह जब तक धर्म पर श्रद्धा नहीं होती, तब तक मालूम नही होता कि सातासुख में कैसा दु.ख छिपा हुआ है। धमश्रद्धा उ पन्न होते ही साता-सुख मे दु.खरूपी विप का पता चलता है। तब उसके प्रति स्वभावत अरुचि पैदा हो जाती है । इस तरह जब साता-युव मे रुचि न रहे तब समझना चाहिए कि हम मे धर्मश्रद्धा है । सभी जानते हैं कि शरीर मे दुर्गन्ध है और दुर्गन्ध के आधार पर ही शरीर को स्थिति है । फिर भी काई दुर्गन्ध पसन्द नही करता । जव दुर्गन्ध पसन्द नहीं है तो दुगन्ध के घर इस शरीर पर क्यो ममत्व रखा जाता है ? कहावत है पगिया बाँधे पैच सवारे, फूले गोरे तन मे । । वन जोवन डूगर का पानी, ढलक जाय इक छन मे। मुखडा क्या देखे दर्पण मे, तेरे दयाधर्म नही मन मे । अर्थात्-अपना सुन्दर शरीर देखकर लोग फूल जाते , हैं । उसे अधिक सुन्दर बनाने के लिए पगडी-टोपी सवार कर पहनते है । भाति-भाति के सुन्दर वस्त्र धारण करते हैं और फिर अपने सौन्दर्य की परीक्षा के लिए दर्पण में मुख देखते है । मगर ज्ञानीपुरुष कहते है कि जिस शरीर को तेल-इत्र लगाया जाता है, वह किस क्षण नष्ट हो जायेगा, इसका क्या भरोसा है ? जैसे पहाड पर बरसा पानी क्षणभर मे नीचे आ जाता है, उसी प्रकार यह ‘तनरग पतग सरीखो जाता वार न लागेजी' इस कथन के अनुसार धनयौवन-रूपरग वगैरह पलभर मे समाप्त हो जाते हैं। अत
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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