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________________ दूसरा बोल - १४३ मगर उस ज्ञान के साथ वैराग्य अवश्य होना चाहिए । जब वैराग्य होगा तो निर्वेद अवश्य होगा और इस दशा मे देव, मनुष्य, तियंच आदि के विषयभोगो के प्रति घृणा उत्पन्न हो जाती है । ज्ञान के साथ अगर वैराग्य न हुआ तो आत्मा स्वर्ग आदि के प्रलोभनो मे पड जायेगा । अतएव इस प्रकार के ज्ञान के साथ वैराग्य होना आवश्यक है । वस्तुत. 'ज्ञानस्य फल विरति . ' अर्थात् ज्ञान का फल वैराग्य ही है 1 2 शास्त्रकारो ने स्वर्ग का श्रौर स्वर्ग के सुखो का वर्णन करके अन्त मे यही कहा है कि स्वर्ग या स्वर्ग के इन सुखो के लिये प्रयत्न मत करो । देवलोक के सुखो के प्रलोभन मे मत पड जाओ । अगर दिव्य सुखो के लालच मे फँस गये तो मोक्ष नही प्राप्त कर सकोगे । इस समय हम लोग स्वर्ग नही देख रहे है, सिर्फ शास्त्रो द्वारा ही वहा की स्थिति जानते हैं कि वहाँ ऐसे-ऐसे सुख है । इन सुने जाने वाले भोगो पर लालच मत लाओ और जब स्वर्ग के सुखों पर भी ललचाना उचित नही है तो फिर मनुष्य सबधी भोगो पर ललचाना किस प्रकार उचित कहा जा सकता है ? ( श्रीपन्नवणासूत्र मे कहा है कि देवलोक के देवता भी तिर्यंचो के साथ भ्रष्ट हो जाते है कहाँ देव और कहाँ तिर्यंच | मगर जब काम का वेग उत्पन्न होता है तो देवता वेभान हो जाते है और अन्त मे भ्रष्ट हो जाते है । ऐसा होने पर भी वास्तव मे कामभोग त्याज्य ही हैं । अतएव अन्त करण में सवेग के साथ निर्वेद धारण करके देव, मनुष्य और तिर्यंच सवधी किसी भी प्रकार के विषयभोगो पर ललचाना उचित नहीं है । देवो को देवलोक के भोगो से तृप्ति नही होती तो वह तिर्यंचो के साथ भ्रष्ट हो जाते हैं । ऐसी स्थिति मे कोई इन भोगो से किस प्रकार 6
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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