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________________ १४२ - सम्यक्त्वपराक्रम (१) निर्वेद जीवन के लिये अत्यन्त अनिवार्य वस्तु है। बिना निर्वेद के किसी का भी कार्य नही चल सकता । यह बात दूसरी है कि किसी मे जघन्य निर्वेद हो, किसी में मध्यम हो और किसी मे उत्कृष्ट हो, मगर निर्वेद के प्रभाव मे जीवनव्यवहार चल नही सकता, यह अनुभवसिद्ध बात है । उदाहरण के लिये मान लीजिए आप भोजन करने बैठे है । इतने में आपके किसी विश्वासपात्र मित्र ने आकर कहा - इस भोजन मे विष है । ऐसी स्थिति मे आप वह भोजन करेगे ? कडाके को भूख लगी होगी तो भी आप वह भोजन नही करेंगे । इसका कारण यह है कि भोजन मे विष होने का ज्ञान होने पर आपको उसके प्रति निर्वेद हो जाता है । इसी प्रकार वस्तु के विषय मे सच्चा विवेक उत्पन्न होने पर सभी को निर्वेद उत्पन्न होता हे और निर्वेद के बिना जीवन- व्यवहार चल नही सकता। मगर जिस निर्वेद के साथ सवेग होता है उस निर्वेद की शक्ति तो गजव की होती है । ज्ञानीजनो मे सवेग के साथ ही निर्वेद होता है । "जिस भोजन में आप विष समझते हैं उसका जिस प्रकार त्याग कर देते हैं, उसी प्रकार ज्ञानोपुरुष ससार के विषयसुख मे विप मानते है और इसी कारण उन्हे सासारिक सुखों पर निर्वेद उत्पन्न हो जाता है । 7 - 'विषय दो प्रकार के होते है-एक वह जो आँखो द्वारा देखे गये है और दूसरे वह जो आँखो से तो नही देखे, सिर्फ कान द्वारा सुने गये हैं । आँखो से देखे जाने वाले विषयसुख तो परिमित ही होते हैं, मगर कानो से सुने जाने वाले विषयसुखो की सीमा ही नही होती । इसी कारण ज्ञानीजनो ने कहा है कि स्वर्ग, देवलोक आदि का ज्ञान होना तो अच्छा है,
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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