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________________ १४४-सम्यक्त्वपराक्रम (१) तृप्त हो सकता है ! भोगो को लालसा तो वह आग है जो ईंधन देने से कभी तृप्त नही होती वरन् अधिकाधिक वढती ही चली जाती है । अतएव सवेगपूर्वक निर्वेद धारण किये विना हमारे लिए दूसरा कोई चारा ही नही है । जिसके भोग से अनन्त काल तक भी तृप्ति नही हो सकती, उसका त्याग करके ही तृप्ति का आनन्द उठाना उचित है। शास्त्रकारो ने कहा है कणकुड़ा चइत्ताणं, विट्ठ भुजइ सूयरो। एव सीलं चइत्ताण, दुस्सीले रमई मिए॥ उत्तरा० १-५ अर्थात् शूकर के सामने चावलो का थाल होने पर भी अगर उसे विष्ठा दीख जाये यो वह चावलो का थाल छोडकर विष्ठा खाने दौडता है, इसी प्रकार दुश्शील लोग, शील का त्याग कर कुशील का सेवन करने दौडते हैं। शुकर को चावल का थाल छोडकर विष्ठा खाने के लिए दौडता देखकर आपको क्या अच्छा लगेगा? आपको अच्छा लगे या न लगे, शूकर को तो विष्ठा ही अच्छी लगती है। उसे विष्ठा अच्छी न लगती तो वह चावल का थाल छोडकर विष्ठा खाने दौडता ही क्यो ? मगर उसकी यह कैसी भूल है ! इसी प्रकार क्या उन लोगो की भूल नहीं है जो शील का त्याग कर कुशील का सेवन करते है ।। आज हम लोग मनुष्य-भव में हैं, इस कारण हमें शूकर का यह कार्य बुरा लगता है और हम उसकी निंदा करते है । मगर उसकी निंदा करके ही बस मत करो। आप अपने कार्यों को भी देखो । कही आप भी तो इसी प्रकार का कोई कार्य नहीं कर रहे है ? ज्ञानीपुरुपो का कथन है कि
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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