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________________ पहला बोल संवेग प्रश्न- संवेगेणं भंते ! जीवे कि ज़णयई ? उत्तर- सवेगेणं अणुत्तरं धम्मसद्ध जणयइ, धम्मसद्धाए संवेग हव्वमागच्छ, श्रणन्ताणुवघिको हमाणमायालोमे खवेइ, नव च कम्मं न बधइ, तप्पच्चय च णं मिच्छत्त विसोहि काऊण दसणाराहए भवइ, दसणविसुद्धाए णं प्रत्येगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिज्भइ, सोहीए णं विसुद्धाए तच्चं पुणो भवगहण नाइक्कमइ ॥१॥ 5 2 . ハ 4 यह पहला बोल है । यहाँ प्रश्न किया गया है कि हे भदन्त | आपने सवेग को आत्मकल्याण का साधन वतलाया है, मगर सवेग क्या है और सवेग से जीव को क्या लाभ होता है ? इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् ने कहा- सवेग से अनुतर धर्मश्रद्धा उत्पन्न होती है और धर्मश्रद्धा से शीघ्र ही सवेग उत्पन्न होता है, जीव अनतानुवधी क्रोध, मान, माया - और लोभ का क्षय करता है, नवीन कर्म नही बाँधता और तत्कारणक मिथ्यात्व की विशुद्धि करके सम्यग्दर्शन का आराधक बन जाता है | दर्शनविशुद्धि से कोई-कोई जीव उसी भव से सिद्ध हो जाता है । कोई उस विशुद्धता से तीसरे
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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