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________________ ६२-सम्यक्त्वपराक्रम (१) भव को उल्लघन नही करता-दर्शनविशुद्धि की वृद्धि होने पर तीसरे भव मे सिद्धि मिलती ही है। ऊपर के सूत्रपाठ पर विचार करते हुए देखना चाहिए कि सवेग का अर्थ क्या है ? 'सवेग शब्द के सम+वेग इस प्रकार दो भाग होते है, व्युत्पत्ति के लिहाज से सम्यक प्रकार का वेग सवेग कहलाता है। हायी, घाडा, मनुष्य, मोटर वगैरह सभी मे वेग होता है, मगर वेग-वेग मे अन्तर है। कोई वेग गड्ढे में ले जाकर गिराने वाला होता है और कोई अभीष्ट स्थान पर पहुँच ने वाला । जो वेग आत्मा को कल्याण के माग पर ले जाता है वही वेग यहाँ अपेक्षित है । भगवान तो कल्याण की बात ही कहते है। भगवान सबको सबोधन करके कहते हैं 'हे जगत् के जीवो ! तुम लोग दुख चाहते हो या सुख की अभिलापा करते हो? इस प्रश्न के उत्तर मे यह कौन कहेगा कि हम दु.ख मे पड़ना चाहते है ? सभी जीव सुख के अभिलाषी हैं। तब भगवान कहते है-अगर तुम सुख चाहते हो तो आगे बढो, पीछे मत हटो। सुख चाहते हो तो पीछे क्यो हटते हो ? सवेग बढ़ाए जाओ और आगे बढ़ते चलो। इस समय तुम्हारी बुद्धि का, मन का तथा इन्द्रियो का वेग किस ओर बह रहा है ? अगर वह वेग तुम्हे दु.ख की ओर घसीटे लिए जाता हो तो इसे रोक दो और आत्मा के सुख की ओर मोड दो । अधोमुखी वेग को रोककर उसे ऊर्ध्वमुखी बनाओ । यदि वेग सम्यक प्रकार बढाया जाये तो ही सुख प्राप्त किया जा सकता है । सवेग की सहायता बिना आगे कुछ भी नही किया जा सकता । इसलिए सर्वप्रथम तो यह निश्चय कर लो कि तुम्हे सुखी बनना है या ओर और बह रहााद्ध का, मन का सुख की पोरना जाता हो तो भार वह वेग तुम्हान्यो का ही सुख प्रापनाओ । यदि सोमुखी वेगा और आत्मा के आगे कुछ भी जा सकता र बढाया जा
SR No.010462
Book TitleSamyaktva Parakram 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJawaharlal Acharya, Shobhachad Bharilla
PublisherJawahar Sahitya Samiti Bhinasar
Publication Year1972
Total Pages275
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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