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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला जीव दुःखी है वे अपनी पर्यायके दोषसे ही दु.खी हैं। पर्यायमें मात्र राग दशा जीतनेको ही अपना मान बैठे हैं और सम्पूर्ण स्वभावको भूल गये हैं . इसलिये रागका ही संवेदन करके दुःखी होते है कितु किसी निमित्तके कारणसे अथवा कर्मोके कारण दुःखी नहीं हैं, और न अन्न, वस्त्र इत्यादिके न मिलनेसे दुःखी हैं, दुःखका कारण अपनी पर्याय है और दुःखको दूर करनेके लिये अरिहन्तको पहचानना चाहिये। अरिहंतके द्रव्य, गुण, पर्याय को जानकर उन्हीं के समान अपनेको मानना चाहिये कि मैं मात्र रागदशा वाला नहीं हूँ किन्तु मैं तो रागरहित परिपूर्ण ज्ञान स्वभाव वाला हूँ मेरे ज्ञानमें दुःख नहीं हो सकता, इसप्रकार जो अपनेको द्रव्य, गुण स्वभावसे अरिहन्तके समान ही माने तो वर्तमान राग पर से अपने लक्ष्यको हटाकर द्रव्य, गुण स्वभाव पर लक्ष्य करे और अपने स्वभाव की एकाग्रता करके पर्यायके दुःखको दूर करे, ऐसा होनेसे जगत्के किसी भी जीवके पराधीनता नहीं है। मैं किसी अन्य जीवका अथवा जड़ पदार्थ का. कुछ भी नहीं कर सकता । सम्पूर्ण पदार्थ स्वतन्त्र हैं, मुझे अपनी पर्यायका उपयोग अपनी ओर करना है, यही सुखका उपाय है। इसके अतिरिक्त जगत्में अन्य कोई सुखका उपाय नहीं है। मै देश आदिके कार्य कर डालू, ऐसी मान्यता भी बिल्कुल मिथ्या है। इस मान्यतामें तो तीव्र आकुलता का दुःख है। मै जगत्के जीवोंके दुःखको दूर कर सकता हूं, ऐसी मान्यता निजको ही महान् दुःखका कारण है। परको दुःख या सुख देनेके लिये कोई समर्थ नहीं है। जगत्के जीवोंको संयोग का दुःख नही है किन्तु अपने ज्ञानादि स्वभावकी पूर्ण दशाको नहीं जाना इसी का दुःख है। यदि अरिहंतके श्रात्माके साथ अपने आत्माका मिलान करे तो अपना स्वतन्त्र स्वभाव प्रतीतिमें आये। अहो ! अरिहंतदेव किसी बाह्य संयोगसे सुखी नहीं किन्तु अपने ज्ञान इत्यादि की पूर्ण दशासे ही वे संपूर्ण सुखी हैं। इसलिये सुख आत्माका ही स्वरूप है, इसप्रकार स्वभावको पहिचानकर रागद्वेष रहित होकर परमानन्द दशाको प्रगट करे। अरिहंतके वास्तविक स्वरूपको नहीं जाना इसलिये अपने स्वरूपको भी
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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