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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला वन्द करके चाहे जितना उलटा टेढ़ा करता रहे और यह माने कि मैने बहुत कुछ किया है। परन्तु जानी कहते हैं कि भाई तूने कुछ नहीं किया, . तू संसारका संसारमें ही स्थित है, तू किंचित् मात्र मी आगे नहीं बढ़ सका । तूने अपने निर्विकार ज्ञान स्वरूपको नहीं जाना इसलिये तू अपनी गाडीको दौड़ाकर अधिकसे अधिक अशुभमें से खींचकर शुभमें ले जाता है और उसीको धर्म मान लेता है, परन्तु इससे तो तू घूम घामकर पुनः वहीं का वहीं विकार में ही खड़ा रहा है। विकार चक्रमें चक्कर लगाया परन्तु विकारसे छूटकर ज्ञानमें नहीं आया तो तूने क्या किया ? कुछ भी नहीं। ज्ञानके बिना चाहे जितना राग कम करे अथवा त्याग करे किन्तु यथार्थ समझके विना उसे सम्यकदर्शन नहीं होता और वह मुक्ति मार्गकी ओर कदापि नहीं जा सकेगा। प्रत्युत वह विकारमें और जड़की क्रियामें कतृत्वका अहंकार करके संसार मार्गमें और दुर्गतिमें फँसता चला जायगा यथार्थ ज्ञानके विना किसी भी प्रकार आत्मा की मुक्त दशा का मार्ग दिखाई नहीं दे सकता । जिसने आत्म प्रतीति की है वे त्याग अथवा व्रत किये बिना ही एकावतारी हो गये है। (१५) संसार का मूल __ कोई यह पूछ सकता है कि आत्माके स्वभावका मार्ग सरल होने पर भी समझमें क्यों नहीं आता ? इसका कारण यह है कि अज्ञानी को अनादिकालसे आत्मा और रागके एकत्वका व्यामोह है, भ्रम है, पागलपन है। जिसे अन्तरंगमें राग रहित स्वभाव की दृष्टिका बल प्राप्त है वह आत्मानुभवकी यथार्थ प्रतीतिके कारण एक भवमें ही मोक्षको प्राप्त कर लेगा और जिसे आत्माकी यथार्थ प्रतीति नहीं है ऐसा अज्ञानी छह-छह महीनेका तप करके मर जाय तो भी आत्म-प्रतीतिके बिना उसका एक भी भव कम नहीं होगा, क्योंकि उसे आत्मा और रागके एकत्वका व्यामोह है, और वह व्यामोह ही संसार का मूल है।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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