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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला २२७ द्रव्यको 'धर्म द्रव्य' कहा जाता है । यह द्रव्य अरूपी है ज्ञान रहित है। ४-अधर्म द्रव्य जैसे गति करनेमें धर्म द्रव्य निमित्त है उसीप्रकार स्थिति करने में उससे विरुद्ध अधर्म द्रव्य निमित्तरूप है। "राजकोटसे सोनगढ़ आकर स्थित हुये," इस स्थितिमें निमित्त कौन है ? स्थिर रहनेमें आकाश निमित्त नहीं हो सकता, क्योंकि उसका निमित्त तो रहने के लिये है, गतिके समय भी रहनेमें आकाश निमित्त था इसलिये स्थितिका निमित्त कोई अन्य द्रव्य होना चाहिये, और वह द्रव्य 'अधर्म द्रव्य है। यह द्रव्य भी अरूपी और ज्ञान रहित है। ५-आकाश द्रव्य हर एक द्रव्यके अपना स्वक्षेत्र होता है, वह निश्चय क्षेत्र है, जहाँ निश्चय होता है वहाँ व्यवहार होता है, जो ऐसा न होय तो अल्पज्ञप्राणी को समझाया नहीं जा सकता । इसलिये जीव, पुद्गल, धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय तथा कालाणुओंके रहनेका जो व्यवहार क्षेत्र वह आकाश है, उस आकाशमें अवगाहन हेतु गुण होनेसे उसके एक प्रदेशमें अनन्त सूक्ष्म रजकण तथा अनन्त सूक्ष्म स्कन्ध भी रह सकते हैं, आकाश क्षेत्र है और अन्य पाँच द्रव्यक्षेत्री हैं। क्षेत्र, क्षेत्री से बड़ा होता है इसलिये एक अखंड आकाशके दो भाग हो जाते हैं, जिसमें पाँच क्षेत्री रहते हैं वह लोकाकाश है और बाकी का भाग अलोकाकाश है।। ___ 'आकाश' नामक द्रव्यकों लोग अव्यक्त रूपसे स्वीकार करते हैं "अमुक मकान इत्यादि स्थानका आकाशसे पाताल तक हमारा अधिकार है" इसप्रकार दस्तावेजोंमें लिखवाया जाता है, इससे निश्चित हुआ कि आकाशसे पाताल रूप कोई एक वस्तु है। यदि आकाशसे पाताल तक कोई वस्तु है ही नहीं तो कोई यह कैसे लिखा सकता है कि आकाशसे पाताल तक मेरा अधिकार है ? वस्तु है इसलिये उस पर अपना अधिकार माना जाता है। आकाशसे पाताल तक कहने में उस सर्व व्यापी वस्तुको
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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