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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द-कहान जैन शास्त्रमाला (३) द्रव्य दृष्टिको क्या मान्य है। द्रव्यदृष्टि कहती है कि "मै मात्र आत्माको ही स्वीकार करती है"। आत्मामें परका संबन्ध नही हो सकता अतः पर संबंधी भावोंको यह दृष्टि स्वीकारती नहीं है। अरे! चौदह गुणस्थानके भेदोंको भी पर संयोगसे होनेके कारण यह दृष्टि स्वीकारती नहीं है । इस दृष्टिको तो मात्र आत्मस्वभाव ही मान्य है। जो जिसका स्वभाव है, उसमें उसका कभी भी किंचित् भी अभाव नहीं हो सकता और जो किंचित् भी अभाव या हीनाधिक हो सके यह वस्तुका स्वभाव नहीं है। अर्थात् जो त्रिकालमें एकरूप रहे वही वस्तुका स्वभाव है । यह दृष्टि इमी स्वभावको ही स्वीकारती है। द्रव्यदृष्टि कहती है कि मैं जीवको मानती हूँ, परन्तु जीव जितना कि पर संयोगरहित हो अर्थात् पदार्थों के संबंधसे नितान्त रहित जो अकेला स्वतत्त्व रहे, उसे ही यह दृष्टि ग्रहण करती है। अपने लक्ष्यकी-चैतन्य भगवानकी, पहिचान करके निमित्तले कराऊं तो चैतन्य स्वभावकी हीनता प्रदर्शित होती है। मेरे चैतन्य स्वभावको परकी अपेक्षा नहीं । एक समय में परिपूर्ण द्रव्य ही मुझे मान्य है। (१८-१-४५ के दिन व्याख्यानसे समयतार गाथा ६८) (४) मोश भी द्रव्यदृष्टिके आधीन है। जो कोई जीव एकबार भी द्रव्यदृष्टि को धारण कर लेता है वह सीव अवश्य मोक्ष प्राप्त करता है। द्रव्य दृष्टिके बिना जीव अनंतानंत उपाय करे तो भी मोक्ष नही पा सकता। श्रीमद् राजचन्द्रजी "सम्यक्त्वकी प्रतिज्ञा' के विवरणमें कहते हैं कि सम्यकत्वको ग्रहण करने से ग्रहणकर्ता की इच्छा न हो तो भी ग्रहणकर्ताको सम्यकत्वकी अतुल शक्तिकी प्रेरणा से मोक्ष जबरदस्ती प्राप्त करना ही पड़ता है तथा वे आगे कहते हैं कि सम्यग्दर्शनकी प्राप्ति बिना जन्म मरणके दुःखकी आत्यंतिक निवृत्ति हो ही नहीं सकती। इसलिये जो मोक्षका अभिलाषी हो उसे अवश्य द्रव्यदृष्टि
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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