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________________ सम्यग्दर्शन __ आत्माका स्वभाव निःसंदेह है, इसलिये उसमें १ संदेह, २ रागद्वेष या ३ भव नहीं है। अतः सम्यग्दृष्टिको निजस्वरूपका १ संदेह नहीं २ राग-द्वेष का आदर नहीं, ३ भवकी शंका नहीं । दृष्टि मात्र स्वभावको ही देखती है। दृष्टि पर वस्तु या पर निमित्तकी अपेक्षासे होने वाले विभाव भावोंको भी स्वीकारती नहीं है। इसलिये विभाव भावके निमित्तसे होने वाले भव भी द्रव्यदृष्टिके लक्ष्यमें नहीं होते । दृष्टि मात्र स्ववस्तुको ही देखती है, इसलिये उसमें परद्रव्य संवन्धी निमित्त-नैमित्तिक सम्बन्ध भी नहीं है। निमित्त-नैमित्तिक संवन्धके सिवायका अकेला स्वभावभाव ही द्रव्यदृष्टिका विषय है। स्वभाव भावमें यानी द्रव्यदृष्टिमें भव नहीं। इस तरह वष्टिका जोर नये भवके वन्धनको उपस्थित नहीं होने देता। जहाँ द्रव्यदृष्टि नहीं होती वहाँ भव का बन्धन उपस्थित हुये विना नहीं रह सकता। क्योंकि उसकी दृष्टि द्रव्य पर नहीं, पर्याय पर है तथा रागयुक्त है। ऐसी दृष्टि तो वन्धन का ही कारण होती है। २. द्रव्यदृष्टि भवको विगड़ने नहीं देती द्रव्य दृष्टि होनेके बाद चारित्र में कुछ अस्थिरता रह भी जाय और एक दो भव हो भी जाय तो भी वे भव विगड़ते नहीं हैं। __ द्रव्यदृष्टि के बाद जीव कदाचित् वैरियोंको संहारार्थ युद्धमें तत्पर हो, वाणके ऊपर वाण छोड़ रहा हो, नील, कापोत लेश्याके अशुभ भाव कभी कभी आते भी हों तो भी उस वक्त नये भवकी आठका बन्ध नहीं होता। क्योंकि अन्तरंगमें द्रव्यदृष्टिका जोर वेहद बढ़ा हुआ रहता है। और वह जोर भवको विगड़ने देता नहीं है। तथैव भव-अवस्थाको बढ़ने देता नहीं है। जहां द्रव्य स्वभाव पर दृष्टि पड़ी कि स्वभाव अपना कार्य विना किये न रहेगा, इसलिये द्रव्यदृष्टि होनेके बाद नीचगतिका बंध या संसारवृद्धि नहीं हो सकती, ऐसा यह द्रव्यस्वभावका वर्णन है। ( २१-६-४४ की चर्चाकै आवारले-सोनगढ़)
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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