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________________ १५८ -* सम्यग्दर्शन किन्तु एक वस्तुमें जो अनन्त गुण हैं उन गुणोंमें एक दूसरे के साथ अन्यत्व भेद है, किन्तु पृथक्त्व भेद नहीं है। इन दो प्रकारके भेदोंके स्वरूपको समझ लेनेपर अनंत पर द्रव्योंका अहंकार दूर हो जाता है और पराश्रय बुद्धि दूर होकर स्वभावकी दृढ़ता हो जाती है तथा सच्ची श्रद्धा होनेपर समस्त गुणोंको स्वतंत्र मान लिया जाता है पश्चात् समस्त गुण शुद्ध हैं ऐसी प्रतीति पूर्वक नो विकार होता है उसका भी मात्र ज्ञाता ही रहता है। अर्थात् उस जीवको विकार और भवके नाशकी प्रतीति हो गई है। समझका यही अपूर्व लाभ है ज्ञेय अधिकारमें द्रव्यगुण-पर्यायका वर्णन है। प्रत्येक गुण-पर्याय ज्ञेय है अर्थात् अपने समस्त गुणपर्यायका और अभेद स्वद्रव्यका ज्ञाता हो गया, यही सम्यग्दर्शन धर्म है । ३२. कौन सम्यग्दृष्टि है? शुद्ध नय कतक फलके स्थान पर है, इससे जो शुद्धनयका आश्रय करते हैं वे सम्यक-अवलोकन करनेसे सम्यग्दृष्टि हैं, परन्तु दूसरे (जो अशुद्धनयका आश्रय करते हैं वे) सम्यग्दृष्टि नहीं हैं। इसलिये कर्मसे भिन्न आत्माको देखने वालोंको व्यवहारनय अनुसरण करने योग्य नहीं है।। (श्री अमृतचन्द्राचार्य देवकृत टीका समयसार गाथा ११) “यहाँ ऐसा समझना चाहिये कि जिनवाणी स्याद्वारूप है, प्रयोननवश नयको मुख्य-गौण करके कहती है। प्राणियोंको भेदरूप व्यवहार का पक्ष तो अनादिकालसे ही है, और जिनवाणीमें व्यवहारका उपदेश शुद्धनयका हस्तावलम्ब समझकर वहुत किया है, किन्तु इसका फल संसार ही है। शुद्धनयका पक्ष तो कभी आया ही नहीं और इसका उपदेश भी विरल है-कहीं कहीं है, इससे उपकारी श्री गुरु ने शुद्धनयके ग्रहणका फल मोक्ष जानकर इसका उपदेश प्रधानतासे (मुख्यतासे) दिया है कि-'शुद्धनय भूतार्थ है, सत्यार्थ है, इसका आश्रय करनेसे सम्यग्दृष्टि हुआ जा सकता है। इसे जाने विना जहाँ तक जीव व्यवहार नयर्मे
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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