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________________ भगवान श्री कुन्दकुन्द - कहान जैन शास्त्रमाला ६१ का विभाग क्षय होता जाता है । वास्तवमें तो जिस समय अभेद स्वभाव की ओर मुकते है उसी समय कर्ता-कर्म क्रियाका भेद टूट जाता है तथापि यहाँ 'उत्तरोत्तर क्षण में क्षय होता जाता है' ऐसा क्यों कहा है ? अनुभव करनेके समय पर्याय द्रव्यकी ओर अभिन्न होजाती है परन्तु अभी सर्वथा भिन्न नही हुई है । यदि सर्वथा अभिन्न होजाए तो उसी समय केवलज्ञान हो जाय, परन्तु जिस समय अभेदके अनुभवकी ओर ढलता है उसी क्षणसे प्रत्येक पर्यायमें भेदका क्रम टूटने लगता है और अभेदका क्रम बढ़ने लगता है । जब पर की ओर लक्ष था तब परके लक्षसे उत्तरोत्तर क्षणमें भेदरूप पर्याय होती थी अर्थात् प्रतिक्षण पर्याय हीन होती जाती थी, और जब परका लक्ष छोड़कर निजमें अभेदके लक्षसे एकाग्र होगया तब निज लक्षसे उत्तरोत्तर क्षणमे पर्याय अभिन्न होने लगी अर्थात् प्रतिक्षण पर्यायकी शुद्धता बढ़ने लगी । जहाँ सम्यग्दर्शन हुआ कि क्रमशः प्रत्येक पर्यायमें शुद्धताकी वृद्धि होकर केवलज्ञान ही होता है बीच में शिथिलता अथवा विघ्न नही आ सकता । सम्यक्त्व हुआ सो हुआ, 'अब उत्तरोत्तर क्षण में द्रव्य पर्यायके 'बीचके भेदको सर्वथा तोड़कर केवलज्ञानको प्राप्त किए बिना नहीं रुकता । ज्ञानरूपी अवस्थाके कार्य में अनन्त केवलज्ञानियोंका निर्णय समा जाता है, प्रत्येक पर्यायकी ऐसी शक्ति है । जिस ज्ञानकी पर्याय ने अरिहन्त का निर्णय किया उस ज्ञानमें अपना निर्णय करनेकी शक्ति है । पर्यायकी शक्ति चाहे जितनी हो तथापि वह पर्याय क्षणिक है । एकके बाद एक अवस्थाका लक्ष करने पर उसमें भेदका विकल्प उठता है । क्योंकि अवस्था में खंड है इसलिये उसके लक्षसे खंडका विकल्प उठता है । अवस्थाके लक्ष में अटकने वाला वीर्य और ज्ञान दोनों रागवाले हैं। जब पर्यायका ला छोड़कर भेदके रागको तोड़कर अभेद स्वभावकी ओर वीर्यको लगाकर वहाँ ज्ञानकी एकाग्रता करता है तब निष्क्रिय चिन्मात्र भावका अनुभव होता है, यह अनुभव ही सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान है ।
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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