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________________ __ - :-* सम्यग्दर्शन अवस्थाके दोष के कारणसे है, अवस्थाका दोष भी मेरा स्वरूप नहीं है। इसप्रकार पहिले भेदके द्वारा निश्चित करना चाहिये किन्तु बादमें भेदके विचारको छोड़कर मात्र आत्माको जाननेसे स्वाधीनता का उपाय प्रगट होता है। द्रव्य, गुण, पर्याय का स्वरूप जानने का फल ' • पर्यायोंको और गुणोंको एक द्रव्यमें अन्तर्लीन करके केवल आत्मा को जानने पर उस समय अन्तरंगमें क्या होता है सो अब कहते हैं:"केवल आत्माको जानने पर उसके उत्तरोत्तर क्षणमें कर्ता-कर्म-क्रियाका विभाग क्षय होता जाता है इसलिये निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है।" __ [गाथा ८० की टीका] द्रव्य, गुण, पर्यायके भेदका लक्ष छोड़कर अभेद स्वभावकी ओर मुकने पर कर्ता-कर्म क्रियाके भेदका विभाग क्षय होता जाता है। और जीव निष्क्रिय चिन्मात्र भावको प्राप्त होता है-यही सम्यग्दर्शन है। __मैं आत्मा हूँ, ज्ञान मेरा गुण है और यह मेरी पर्याय है-ऐसे भेदकी क्रियासे रहित, पुण्य-पापके विकल्पसे रहित निष्क्रिय चैतन्य भावका अनुभव करनेमें अनन्त पुरुषार्थ है, अपना श्रात्म थल स्वोन्मुख होता है। कर्ता-कर्म क्रियाके भेदका विभाग क्षयको प्राप्त होता है। पहिले विकल्पके समय मैं कर्ता हूँ और पर्याय मेरा कार्य है इसप्रकार कर्ताकर्मका भेद होता था, किन्तु जब पर्यायको द्रव्यमें ही मिला दिया तब द्रव्य और पर्यायके बीच कोई भेद नहीं रहा अर्थात् द्रव्य कर्ता और पर्याय उसका कार्य है। ऐसे भेदका अभेदके अनुभवके समय क्षय हो जाता है। पर्यायोंको और गुणको अभेदरूपसे आत्म द्रव्यमें ही समाविष्ट करके परिणामी, परिणाम और परिणति (कर्ता कर्म और क्रिया) को अभेदमें समाविष्ट करके अनुभव करना सो अनन्त पुरुषार्थ है। और यही ज्ञानका स्वभाव है। भंग-भेदमें जाने पर ज्ञान और वीर्य कम होते जाते है और श्रभेदका अनुभव करने पर उत्तरोत्तर क्षणमें कर्ता-कर्म-क्रिया
SR No.010461
Book TitleSamyag Darshan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKanjiswami
PublisherDigambar Jain Swadhyay Mandir Trust
Publication Year
Total Pages289
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size13 MB
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