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________________ १३१ राजभक्ति । 1 तुम्हें छोटा कदापि नहीं कर सकते । जहाँ प्रेमका सम्बन्ध है वहाँ ह होनेमें गौरव है; जहाँ यह सम्बन्ध न हो वहाँ चाहे कैसी ही घटना क्यों न हो जाय, तुम अपने अन्तःकरणको मुक्त रखना, सरल रखना, दीनताको पास न फटकने देना, भिक्षुकभावको दूर भगा देना, और अपने आपमें पूर्ण आस्था रखना । क्योंकि निश्चय ही संसारको तुम्हारी अत्यन्त आवश्यकता है— तुम्हारे बिना उसका काम चल ही नहीं सकता । यही कारण है कि इतनी यातना - यंत्रणा सहकर भी तुम मरे नहीं, जीते हो | यह बात कदापि नहीं है कि दूसरोंकी बाहरी चाल ढालका अनुकरण करते हुए एक ऐतिहासिक प्रहसनका प्लाट तैयार करने मात्रके लिये तुम इतने दिनोंसे जीवित हो । तुम जो होगे, जो करोगे, दूसरे देशोंके इतिहास में उसका दृष्टान्त नहीं है, इसलिये उनके लिये वह अनूठी बात होगी । अपने निजके स्थानपर तुम विश्वत्रह्मांण्ड में सभीसे बड़े हो | हे हमारे स्वदेश ! महापर्वतमाला के पादमूलमें महा समुद्रोंसे घिरा तुम्हारा आसन तुम्हारी प्रतिक्षा कर रहा है । इस आसन के सामने विधाताके आह्वानसे आकृष्ट होकर हिन्दू, मुसलमान, ईसाई, बौद्ध कितने ही दिनोंसे तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहे हैं । जिस समय तुम अपने इस आसनको फिर एक बार ग्रहण करोगे, हम निश्चयपूर्वक जानते हैं कि उस समय तुम्हारे मंत्रसे, ज्ञान, कर्म और धर्म के सेकड़ों विरोध क्षण मात्र में मिट जायँगे और निष्ठुर, विश्वद्वेषी, आधुनिक पालिटिक्स ( राजनीति ) कालभुजंगका दर्प तुम्हारे चरणोंमें चूर्ण हो जायगा । तुम चञ्चल न होना, लुब्ध न होना, "आत्मानं विद्धि" - अपने आपको पहचानना और -- “ उत्तिष्ठत जाग्रत पाप्य वरान् निबोधत, क्षुरस्य धारा निशिता दुरत्यया दुर्गे पथस्तत् कत्रयो वदन्ति " – उठो, जागो, जो श्रेष्ठ है उसको पाकर प्रबुद्ध होओ; कवि कहते हैं कि सच्चा मार्ग शानपर चढ़ाए हुए छुरेकी धारके समान दुर्गम और दुरतिक्रम्य होता है ।
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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