SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११४ राजा और प्रजा। बात है; भारतवर्षको ब्रिटिश साम्राज्यमें एकात्म होनेका अधिकार नीजिए। केवल बातोंके भरोसे ही तो कोई अधिकार मिल नहीं जातायहाँ तक कि यदि कागजपर पक्की लिखा पढ़ी हो जाय तो भी दुर्बल मनुष्यों को अपने स्वत्वोंका उद्धार करना बहुत कठिन होता है। इसीलिये जब हम देखते हैं कि जो लोग हमारे अधिकारी या शासक हैं वे जब इम्पीरियल-वायुसे ग्रस्त हैं तब हम नहीं समझते कि इससे हमारा कल्याण होगा। पाठक कह सकते हैं कि तुम व्यर्थ इतना भय क्यों करते हो । जिसके हाथमें शक्ति है वह चाहे इम्पीरियलिज्मका आन्दोलन करे और चाहे न करे, पर यदि वह तुम्हारा अनिष्ट करना चाहे तो सहजमें ही कर सकता है। लेकिन हम कहते हैं कि वह सहजमें हमारा अनिष्ट नहीं कर सकता । हजार हो, पर फिर भी दया और धर्मको एकदमसे छोड़ देना बहुत कठिन है । लेजा भी कोई चीज है। लेकिन जब कोई व्यक्ति किसी बड़े सिद्धान्तकी आड़ पा जाता है तब उसके लिये निष्ठुरता और अन्याय करना सहज हो जाता है। बहुतसे लोगोंको योंही किसी जन्तुको कष्ट पहुँचानेमें बहुत दुःख होता है। लेकिन जब उसी कष्ट देनेका नाम · शिकार ' रख दिया जाता है तब वे ही लोग बड़े आनन्दसे बेचारे हत और आहत पक्षियोंकी सूची बढ़ानेमें अपना गौरव समझते हैं। यदि कोई मनुष्य बिना कारण या उपलक्ष्यके किसी पक्षीके डैने तोड़ दे तो अवश्य ही वह शिकारीसे बढ़कर निष्ठुर माना जायगा; लेकिन उसके निष्ठुर माने जानेसे पक्षीको किसी प्रकारका विशेष सन्तोप नहीं हो सकता।
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy