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________________ ९७ अत्युक्ति । I इस प्रकारके और भी हजारों दृष्टान्त हैं । लेकिन ये सब बँधी हुई अत्युक्तियाँ हैं—पैतृक हैं । हम लोग अपने दैनिक व्यवहारमें नित्य नई नई अत्युक्तियों की रचना किया करते हैं । वस्तुतः प्राच्यजातिकी भर्त्सनाका यही कारण है । 1 ताली एक हाथ से नहीं बजती, इसी प्रकार बात भी दो आदमि - योंके मिलनेसे होती है । जिस स्थानपर श्रोता और वक्ता दोनों एक दूसरेकी भाषा समझते हैं उस स्थानपर दोनोंके संयोगसे अत्युक्ति आपसे आप संशोधित हो जाती है । माहब जब चिट्ठीके अन्तमें हमें लिखते हैं Yours truly— सचमुच तुम्हारा - तब यदि हम उनके इस अत्यन्त घनिष्ट आत्मीयता दिखलानेवाले पदपर अच्छी तरह विचार करें तो हम समझते हैं कि वे सचमुच हमारे नहीं हैं । विशेषतः जब कि बड़े साहब अपने आपको हमारा बाध्यतम भृत्य बतलाते हैं तो हम अनायास ही उनकी इस बातमेंसे सोलह आने बाद करके ऊपरसे और भी सोलह आने काट ले सकते हैं, अर्थात् इसका बिलकुल ही उलटा अर्थ ले सकते हैं । ये सब बँधी हुई और दस्तूरकी अत्युक्तियाँ हैं । लेकिन प्रचलित भाषा प्रयोगकी अत्युक्तियाँ भी अँगरेजीमें कोड़ियों I भरी पड़ी हैं। Immensely, immeasurably, extremely, awfully, infinitely, absolutely, over so much, for the life of me, for the world, unbounded, endless आदि शब्द-प्रयोग यदि सभी स्थानोंपर अपने अपने यथार्थ भावोंमें लिए जायँ तो उनके सामने पूर्वीय अत्युक्तियाँ इस जन्म में कभी सिर ही न उठा सकेंगी । यह बात स्वीकृत करनी ही पड़ेगी कि बाहरी या ऊपरी विषयों में हम लोग बहुत ही शिथिल हैं। बाहरकी चीजको न तो हम लोग ठीक रा० ७
SR No.010460
Book TitleRaja aur Praja
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBabuchand Ramchandra Varma
PublisherHindi Granthratna Karyalaya
Publication Year1919
Total Pages87
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size3 MB
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