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सिद्ध जीवों का स्वरूप]
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है। इन समस्त उलझनमय प्रश्नो के उत्तर निम्नलिखित गाथाओ से यो दिये गये है :
अलोए पडिहया सिद्धा, लोयग्गे य पइटिया । इहं वोदि चइत्ताणं, तत्थ गंतूण सिज्झई ॥४॥
त० अ० ३६, गा० ५६ ] सिद्ध जीव अलोक की सीमा पर जाकर रुकते है और लोक के अग्रभाग पर स्थिर होते है। वे यहाँ अर्थात् मनुष्यलोक मे शरीर त्याग करते हैं तथा लोकान पर पहुंच कर सिद्ध-गति प्राप्त करते है।
विवेचन-ऊर्ध्व गति करनेवाला जीव जहाँ तक धर्मास्तिकाय द्रव्य रहता है, वहाँ तक ही गति करता है। वहाँ से आगे गति कर नही सकता, क्योकि वहाँ गति करने के लिए सहायभूत धर्मास्तिकाय द्रव्य नही होता, फलतः वह अलोक की सीमा पर जा रुकता है । जीव यदि धर्मास्तिकाय द्रव्य की सहायता के बिना भी गति करने मे समर्थ हो, तो उसको यह ऊर्ध्व गति निरतर चालू हो रहेगी और कभी किसी काल मे उसका अन्त नही आयेगा क्योकि आकाश का अन्त नही है।
ऊर्ध्व गति करता हुआ जीव जिस स्थान पर रुकता है, वह लोक का अग्रभाग है। वहाँ पहुँचने के पश्चात् वह किसी प्रकार की गति नहीं करता, अर्थात वही पर स्थिर हो जाता है और अनन्त काल तक इसी अवस्था मे रहता है।
सिद्ध बनने वाला जीव सामान्यतः मनुष्यलोक की मर्यादा मे ही अपना शरीर छोड़ता है और वह जब लोकान पर पहुचता है तभी