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[श्री महावीर-वचनामृत
सिद्ध वन गया माना जाता है। अतः सिद्ध शब्द का अर्थ 'सिद्धिस्थान प्राप्त' ऐसा समझना चाहिये।
सिद्ध वने हुए जीव परमात्मदशा को प्राप्त हो जाते है, अर्थात् उनकी गणना परमात्मा के रूप में होती है और इसीलिये उन्हे अरिहन्त भगवन्त के समान वन्दनीय तथा पूजनीय माना जाता है। वारसहिं जोयणेहिं, सचट्ठस्सुवरिं भवे । ईसीपभारनामा उ, पुढवी छत्तसंठिया ॥५॥ पणयालसयसहस्सा, जोयणाणं तु आयया । तावइयं चेव वित्थिन्ना, तिगुणो साहिय परिरओ ॥६॥ अट्ठजोयणवाहल्ला, सा मज्झमि वियाहिया। परिहायंती चरिमन्ते, मच्छियपत्ताउ तणुयरी ॥७॥ अज्जुणसुवन्नगमई, सा पुढवी निम्मला सहावेण । उत्ताणयछत्तयसंठिया य भणिया जिणवरेहिं ॥८॥ संखंककुंदसंकासा, पंडुरा निम्मला सुभा । सीयाए जोयणे तत्तो, लोगंतो उ वियाहिओ ॥६॥
[उत्त० अ० ३६, गा०५७ से ६१] सर्वार्थसिद्ध विमान से वारह योजन ऊपर छत्र के आकारवाली ईषत्प्राग्भार नामक पृथ्वी है। वह पैतालीस लाख योजन लम्बी और इतनी ही चौडी तथा इसके तिगनेपन से अधिक परिधिवाली है। तात्पर्य यह है कि वह वर्तुलाकार है। वह पृथ्वी मध्य भाग से आठ