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सिद्ध जीवों का स्वल्प]
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मे मिन बने। ठीक वैसे ही इलाचोकुमार आदि कुछ महानुभाव अत तक गृहिलिंग अर्थात् गृहस्थ-वेश मे ही रह कर सिद्ध बने है। तात्पर्य यह है कि सिद्ध बनने मे वेश कोई अन्तिम महत्त्व की वस्तु नहीं है, बल्कि कर्मक्षय ही अन्तिम महत्वपूर्ण वस्तु है।
यहाँ छह प्रकारों का स्पष्ट निर्देश किया गया है और आदि पद के द्वारा अन्य प्रकारो की सम्भवितता दिखलाई गई है । अतः यह स्पष्ट करना अत्यंत आवश्यक है कि जैन सिद्धान्त मे कुल पन्द्रह प्रकार के सिद्ध माने गये है। इस तरह अब नी तरह के सिद्धो का वर्णन गेप रहा, जो यहाँ प्रज्ञापनासूत्र के प्रथम पद के आधार पर दिया जाता है :
७ : तीर्थसिद्ध तीर्थ के अस्तित्व-काल मे सिद्ध बने हुए। यहाँ तीर्थ शब्द का अर्थ श्री जिनेश्वर भगवन्तो द्वारा स्थापित साधुसाध्वी श्रावक-श्राविकारूपी चतुर्विध सघ समझना चाहिए।
८ : अतीर्थसिद्ध तीर्थ की स्थापना होने से पूर्व या तीर्थ के व्यवच्छेद काल मे जातिस्मरणादि-ज्ञान से सिद्ध बने हुए।
६: तीर्थकरसिद्ध-श्रीऋषभदेव आदि की तरह तीर्थर वनकर सिद्ध बने हुए।
१०: अतीर्थङ्करसिद्ध-श्री भरतचक्रवर्ती आदि के समान सामान्य केबली होकर सिद्ध बने हुए।
११ : स्वयबुद्धसिद्ध-श्रीआर्द्र कुमार आदि के समान स्वयमेव बोध प्राप्त कर सिद्ध बने हुए।