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________________ [श्री महावीर-वचनामृत ___ अर्थात् स्त्रीलिंगसिद्ध, पुरुपलिंगसिद्ध, नपुसकलिंगसिद्ध, स्वलिंग सिद्ध, अन्यलिंगसिद्ध, गृहलिंगसिद्ध आदि । विवेचन-सिद्ध होने के बाद सभी जीव समान अवस्था को प्राप्त होते हैं, किन्तु सिद्ध वनने के समय सभी जीवों की अवस्था एक सी नही होती। इस अवस्था-भेद को समझाने के लिये ही यहां पर सिद्ध के विविध प्रकारो का वर्णन किया गया है। चार गतियों मे संसरण करनेवाले जीव केवल मनुष्य गति के माध्यम से ही सिद्ध बन सकते हैं, अर्थात् यहाँ पर वर्णित समस्त प्रकार मनुष्य से सम्बन्वित ही समझने चाहिए। लिंग की दृष्टि से मनुष्य के तीन भेद होते है :-स्त्री, पुरुष और नपुसक। इन तीनों लिंगो के द्वारा मनुष्य सिद्ध गति प्राप्त कर सकता है। 'चन्दनवाला स्त्रीलिंग से सिद्ध वनी, इलाचीकुमार पुरुषलिंग मे रहते हुए सिद्ध बने और गागेय नपुसकलिंग मे सिद्ध हुए। सारांग यह है कि सिद्धावस्था प्राप्त करने मे लिंग किसी भी रूप मे वाचक नहीं होता । जो कोई कर्मों का क्षय करता है, वह अवश्य सिद्धावस्था प्राप्त कर सकता है। मनुष्य स्वलिंग मे अर्थात श्रमण के वेग मे ही सिद्ध होता है। किन्तु अपवाद रूप मे कभी अन्य वेश मे भी सिद्ध हो सकता है। वहाँ पूर्वजन्म के स्मरणादि से श्रमण-जीवन का ज्ञान होता है और जीव अन्तःकरणपूर्वक सर्वविरति, अप्रमत्त दशा, अनासक्त भाव आदि मे वढ जाने से वैसा बनता है। श्री गौतमादि महामुनि स्वलिंग मे सिद्ध हुए तथा वल्कलचीरी आदि महानुभाव तापग-वेस
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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