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________________ धारा : २: सिद्ध जीवों का स्वरूप संसारत्था य सिद्धा य, दुविहा जीवा वियाहिया । सिद्धा णेगविहा वुत्ता, तं मे कित्तयओ सुण ॥१॥ उत्त० अ० ३६, गा०४८] जीव दो प्रकार के कहे गये है :-ससारी और सिद्ध । जबकि सिद्ध अनेक प्रकार के बताये गये है, उनका वर्णन मेरे द्वारा सुनो। विवेचन-इस लोक मे जीव अनन्त है, वे मुख्यतः दो विभागों मे विभाजित है :-ससारी और सिद्ध। जो जीव कर्मवशात् ससार मे परिभ्रमण कर रहे है अर्थात् नरक, तिर्यरच, मनुष्य और देवादि चार गतियो मे बार-बार जन्म धारण कर जन्म-जरा-मरणादि के दुःख भोग रहे है, वे संसारी और जो जीव कर्म के बन्धनों से मुक्त हो जाने के कारण ससार-सागर पार कर गये है, वे सिद्ध। उनमे से सिद्ध बने हुए जीवो का वर्णन यहाँ प्रस्तुत है। सिद्ध के जीव अनेक प्रकार के है, जैसे कि इत्थीपुरिससिद्धा य, तहेव य नपुंसगा। सलिगे अन्नलिगे य, गिहिलिंगे तहेव य ॥२॥ [उत्त० अ० ३६, गा०४६]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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