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________________ विश्वतन्त्र] [१५ भगवान् महावीर ने द्रव्य का लक्षण सत् माना है और उसे उत्पाद, व्यय और ध्रीव्य-सजक बतलाया है। इसका भी यही रहस्य है। किसी भी द्रव्य मे नये पर्याय की उत्पत्ति तभी होती है जबकि उसके पुरातन पर्याय का व्यय हो-नाश हो। ये दोनों क्रियाएं साथ-साथ ही होती है अर्थात् पुराना पर्याय नष्ट होता जाता है और नया पर्याय उत्पन्न होता रहता है। मनुष्य बालक से युवा बनता है । उस समय बचपन मिटने की और जवानी आने की क्रिया भिन्न-भिन्न समय पर नही होती बल्कि एक साथ ही होती है। इसी तरह पुराने पर्याय का नाश और नवीन पर्याय की उत्पत्ति होने पर भी मूल द्रव्य तो ध्रौव्य-सज्ञक ( अटल) होने के कारण स्थित ही रहता है। दूसरे शब्दो मे कहा जाय तो पर्याय के इस रूपान्तर के समय भी इसके मौलिक गुण-मूलभूत वस्तु तो बनी ही रहती है और इसी कारणवश द्रव्य के नरन्तर्य का हम अनुभव करते है, जैसे बाल्यावस्था, युवावस्था आदि मे मनुष्यत्व स्थित है, मानव के सहज गुण स्थित है। एगत्तं च पुहुत्तं च, संखा संठाणमेव य । संजोगा य विभागा य, पजवाणं तु लक्खणं ॥६॥ [उत्त० अ० २८, गा० १३] एकत्व, पृथक्त्व, सख्या, सस्थान, सयोग और विभाग ये पर्यायो के लक्षण है। विवेचन-पर्याय यह द्रव्य की एक अवस्था है, द्रव्य का परिणाम है। ऐसे अनेकानेक परिणाम द्रव्य मे होते है। हमे वस्तु के
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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