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[ श्री महावीर वचनामृत __द्रव्य गुणों को आश्रय देता है और गुणो का आश्रय द्रव्य है । अनेक गुण एक द्रव्य के आश्रित रहते हैं । परन्तु पर्याय का लक्षण यह है कि वह द्रव्य और गुण दोनो का आश्रित रहता है।
विवेचन-द्रव्य गुणो को आश्रय देता है, अर्थात् प्रत्येक द्रव्य के अपने विशिष्ट गुण होते हैं। ये गुण द्रव्याश्रित होते हैं। अतः वे द्रव्य के साथ ही रहनेवाले होते हैं, उससे अलग नहीं होते। उदाहरण के लिये चैतन्य जब जीव-द्रव्य का गुण है तभी वह उसके साथ ही देखने मे आता है, किन्तु उससे पृथक् नही । पर्याय अर्थात् अवस्थाविशेष । यह भी द्रव्य और गुण दोनो के आधार पर ही होता है, परन्तु निरे द्रव्य पर अथवा गुण पर नही होता । जैसे कि घट यह पुद्गल का पर्याय है। इसमे पुद्गल द्रव्य भी है और स्पर्श, रस, वर्ण, गत्व आदि गुण भी। साराश यह है कि विश्व की व्यवस्था करनेवाले जिन छह द्रव्यो की गणना ऊपर की गई है, वे छहो द्रव्य गुण और पर्याय से युक्त होते हैं। वे कभी भी गुण रहित अथवा पर्याय रहित नही होते। श्री उमास्वाति वाचक ने 'तत्त्वार्थाधिगम सूत्र' के पांचवे अध्याय मे 'गुण पर्यायवद् द्रव्यम् ॥३८॥' इस गाथा के माध्यम से यह बात स्पष्ट की है। यहाँ केवल इतना ही समझना है कि गुण यह सहभावी है, अर्थात सदा साथ रहने वाला है और पर्याय क्रमभावी है, यानी एक पर्याय का नाश होने पर नया पर्याय उत्पन्न होने, वाला है। यह भी अपेक्षा से ज्ञात होता है। अन्यथा गुणो मे से प्रत्येक गुण क्रमशः परिवर्तनशील है, उदाहरणार्थ पहले अमुक ज्ञान, वाद मे दूसरा ज्ञान, उसके बाद मे तीसरा ज्ञान । इस तरह देखा जाय तो गुण भी अन्त मे पर्याय ही है !