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[श्री महावीर वचनामृत
को स्थिर रखने मे सहायभूत होता है। स्थिर रहने की शक्तिवाले मनुष्य के लिये जैसे स्थिर रहने मे शय्या अथवा आसन आदि सहायक सिद्ध नही होते क्या ? यहाँ भी तदनुसार ही समझना चाहिये।
धर्म और अधर्म-द्रव्य लोक मे व्याप्त है जवकि लोक से बाहर कही नही ! अतः किसी भी चेतन-जड पदार्थ की गति-स्थिति लोक मे ही सम्भव है, लोक से बाहर नही। __ आकाश-द्रव्य-यह अवकाश-लक्षणोंवाला है, इसका तात्पर्य यह है कि वह प्रत्येक पदार्थ को अपने भीतर रहने के लिये पर्याप्त स्थान देता है और इसीलिये विश्व के चराचर सभी पदार्थ आकाश मे स्थित हैं । आकाश का जितना भाग लोक व्याप्त है, उसे लोकाकाश कहते हैं और शेष भाग को अलोकाकाश ।
सक्षेप मे धर्म यह गतिसहायक द्रव्य ( Medium of motion ) अधर्म यह स्थितिसहायक द्रव्य ( Mediuni of rest ) और आकाश यह अवकाश (Space) रूप है।
वत्तणालक्खणो कालो, जीवो उवओगलक्षणो । नाणेणं दंसणेणं च, सुहेण य दुहेण य ॥५॥
[उत्त० अ० २८, गा० १०] काल वर्तना लक्षणवाला है और जीव उपयोग लक्षणवाला । जीव को ज्ञान, दर्शन, सुख और दुःख के द्वारा जान सकते हैं।
विवेचन-काल ('Time ) वर्तना लक्षणवाला है, इसका तात्पर्य यह है कि किसी भी वस्तु अथवा पदार्थ की वर्तना जाननी हो तो वह काल के द्वारा जानी जा सकती है । ' यह वस्तु है ' 'यह