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________________ विश्वतन्त्र धर्म-द्रव्य गति-लक्षणवाला है। जबकि अधर्म-द्रव्य स्थिति-लक्षणवाला है। और आकाग-द्रव्य अवकाश-लक्षणवाला है, साथ ही यह सर्व द्रव्यो के रहने का स्थान है। विवेचन–प्रत्येक द्रव्य को पहचानने के लिये उसके लक्षणो को जानना आवश्यक है। इसलिये यहाँ इनके लक्षणो का विशेष रूप से निर्देश किया गया है। धर्म-द्रव्य-यह गति-लक्षणात्मक है, इसका तात्पर्य यह है कि स्वभावानुसार स्वय ही गमन करनेवाले चेतन तथा जङ-पदार्थों को गति करने मे यह सहायक सिद्ध होता है। यहाँ स्वाभाविक रूप से यह प्रश्न उपस्थित हो सकता है कि यदि एक द्रव्य स्वय स्वभावगत ही गतिशील हो तो उसे अन्य द्रव्य की सहायता की भला क्या आवश्यकता है ? इसका यही समाधान है कि जैसे मछली मे तैरने की शक्ति रहने पर भी वह जल के बिना तैर नही सकती, वैसे ही चेतन और जड़ पदार्थों मे गति करने की स्वय शक्ति है, किन्तु वे धर्मास्तिकाय द्रव्य की सहायता के बिना गति नही कर सकते। आधुनिक वैज्ञानिको ने भी इस बात का स्वीकार किया है कि कोई पदार्थ आकाश मेअवकाश से जो गति करते है, वह ईथर नामक एक अदृश्य पदार्थ के आधार पर ही गतिमान् है। ईथर के स्वरूप के बारे मे इन लोगों मे एकमत नहीं है। किन्तु विशेष सशोधन के परिणामस्वरूप वे घर्मास्तिकाय सिद्धान्त के अधिकाधिक निकट आ रहे है। अधर्म-द्रव्य-यह स्थिति-लक्षणात्मक है, इसका तात्पर्य यह है कि यह अपने स्वभाव से स्थिर अटल-अचल रहे चेतन और जड पदार्थों
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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