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________________ [श्री महावीर-वचनामृत धम्मो अहम्मो आगासं, दवं इक्विकमाहियं । अणंताणि य दवाणि, कालो पुग्गल-जंतवो ॥३॥ [उत्त० अ००८, गा०८] धर्म, अधर्म और आकाग-इन तीनों को एक-एक द्रव्य कहा गया है जबकि काल, पुद्गल और जीव-इन तीनो को अनन्त द्रव्य कहा गया है। विवेचन-धर्म-द्रव्य समस्त लोक में अखण्ड रूप मे स्थित है। अत वह एक है। हम बुद्धि के द्वारा इसके विभागों की कल्पना कर सकते हैं, पर वस्तुतः ऐसी कोई वात नहीं है। अधर्म और आकाश द्रव्य की भी यही स्थिति है। किन्तु काल, पुद्गल और जीव ये तीन द्रव्य अनन्त है। फलतः इनका निर्देश संख्या के द्वारा नही किया जा सक्ता । यहाँ इतना स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि जगत् का विद्वद्वग जिस वस्तु का निर्देश संख्या के द्वारा नही कर सकता, उसे असख्यात कहकर छोड देता है । परन्तु जैन महर्षियों ने असख्यात को भी दो विभागो मे विभाजित किया है, इसमे से प्रथम विभाग को असंख्यात और दूसरे विभाग को अनन्त कहा गया है । असख्यात की अपेक्षा अनन्त का प्रमाण बहुत विस्तृत है। असंख्यात कब कहा जाय इसका स्पष्टीकरण हमे पाँचवी गाथा के विवेचन से ज्ञात हो सकेगा। गईलक्षणो उ धम्मो, अहम्मो ठाणलक्षणो। भायणं सबदनाणं, नहं ओगाहलक्खणं ॥४॥ [ उत्त अ०२८, गा ]
SR No.010459
Book TitleMahavira Vachanamruta
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Shah, Rudradev Tripathi
PublisherJain Sahitya Prakashan Mandir
Publication Year1963
Total Pages463
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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